किताबे **** कुछ किताबे.. होती समय साक्षी है, कुछ मन मोहिनी सी, कुछ उबाऊ भी जो स्लैबों की शोभा मात्र बन रह जाती हैं, परत दर परत धूळ का लिबास ओढ़े तो कुछ होती ऐसी भी जो . कौतुहल से बेसब्र .. अपने उद्धारक ... पाठक की ओर ... अपनी रंगीन जिल्दों का ... जादू बिखेरना चाहती है |
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यातायात जाम _____________ दुनिया के जामनगर में चारो तरफ भीड़ ही भीड़ सड़क और सड़कों को जोड़ती सड़कें चलती अंतहीन सफर पर जहाँ आदमी की मात्र पहचान बस ...वाहन रेंगती - हॉर्न बजाती असंख्य छोटे- बड़े वाहन अपनी बनावट पर इतराते फिर अपनी अमीरी पर ऐंठते -धकेलते ठेंगा दिखाते जीवन पथ पर बढ़ते ये मुसाफिर मशीनी युग के अजीब दीवाने जहां हर शक्स कैद होकर इसकी तृष्णा संसार में इतना उलझ चुका है हर घर के हर व्यक्ति चाहने लगा एक वाहन समाज पर प्रभाव दिखाने भीड़ बढ़ाने जाम लगाने क्योंकि वाहन मोह को भोग रहा है ढ़ो रहा है गाली- गलौच के बोझ को असमय मृत्यु के खौफ को जिसको देख रहा निसदिन जाम को पचाने की आदत ने सिखा दिया आदमी को पचाना समय की सभी अनियमित को जिसमें हर रोज एक नया जीवन को मजबूरी में जीते हैं नासमझ लोग । ___________सुनीता शर्मा
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घड़ी भर की वह बरखा फुहार बनकर आया बेहरूपिया था मगर ऐतबार बनकर आया वक़्त की बंदिशों मेँ पहचान ना सके जिसे वो गुलशन मेँ मेरे खार बनकर आया रिसते जख्मों की तदबीर तो जरा देखिए वह तो रिश्तों का सौदागर बनकर आया परवाज़ की बुलंदियों पर फक्र था मुझे पर कतरने बहेलिया माहिर बनकर आया रूह भटकती रही घने दश्त मेँ रात दिन नागहा मेरा रकीब खंजर बनकर आया
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-बुत -- ________________________ सारा परिवार आज बहुत खुश था ! शहर के मशहूर मॉल " फ्रेंडशिप " में विनोद ने अपने बेटे माणिक के जन्मदिन की पार्टी रखी थी ! सभी मिलकर नाच गा रहे थे किन्तु माणिक की छोटी बहिन मृदुला का ध्यान कहीं और था ! सबकी नज़रे बचाकर वह मॉल की खिड़की से पार्क में स्थापित एक झुकी बुत को लगातार देखने लगी उसे उस बुत में अपनी दादी नज़र आने लगी और वह रो पड़ी ! माँ पापा बहुत बुरे हैं ! उन्होंने मेरी बूढी दादी जिसकी कमर ऐसे ही झुकी रहती है उन्हें गाँव में अकेले छोड़ कर यहाँ आ गए है ! दादी भी तो अकेली होगी और उन्हें कितना बुरा लगता होगा ! कुछ सोचकर मृदुला ने दो गुब्बारे ,थोड़ा केक और थोड़े पैसे जो उसे अभी एक अंकल ने दिए थे उन्हें लेकर वह चुपचाप मॉल के पार्क में आ गई जहाँ पार्टी में आए बच्चे झूला झूल रहे थे ! मृदुला उस सफ़ेद मूर्ति के पास गई और बोली - " दादी आप सारा दिन ऐसे क्यों खड़ी रहती हो ,थक जाओगी , आज भैया का बर्थडे है देखो मैं तुम्हारे लिए केक और पैसे लाई हूँ और ये हैं गुब्बारे इनसे खेला करो देखो इसमें मैं और माणिक भैया दिख रहे है न , तो अब आप
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पतझड ********** पत्ते पत्ते सूख कर दरख्त से फिर बिछड़ गए साथ एक दूजे का छोड़कर जब्त से पिछड़ गए अहसासों के कालीन बन सरे राह बिखरे ऐसे कि दूर ही सही चेतना से जाने क्यों फिर अकड़ गए हवा संग मिलकर जब आंख मिचौली खेल लिया बहुत लगा थककर चूर होकर वे सब यहाँ वहाँ पड़ गए देखता रहा दरख्त अपने जिंदगी में उनका का भेद साख से गिरकर एक दिन वे पत्ते भी सड़ गए बेसिम्त जिंदगी का यह अफसाना सिखा दिया उसकी रज़ा से फ़क़्त सब बाग़ क्यों उजड़ गए अजल से फ़ना होने का दस्तूर मैं निबाहता गया फ़जाओं में बहारों की हक़ीक़त सुन तुम बिगड़ गए ________________सुनीता शर्मा
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साहित्य सृजन *********** एक ग्रंथ छुपा सभी के अंतस में , माँ शारदे की कृपा बरसने से , खुलता सृजन कपाट .. जिससे निकालते असंख्य .... कल्पना के पंछी जो ... शब्दों की शक्ल में . . अंकित होते कागजों में .... पर ये मात्र पन्ने नहीं ...... होता सृजनकर्ता का कोमल हृदय , जो है सवेदनाओ का अनूठा संसार , पर शायद वह नहीं जानता कि .. साहित्य सृजन नहीं सरल , जो आज हैं उनसे होता संघर्ष निरंतर , अपने अस्तित्व कि तलाश में , सहने पड़ते हैं असंख्य ... वक़्त के थपेड़े .. साहित्यकारों के व्यंगबाण... बनते है जो अवरोध , एक चट्टान की भांती , उस नदी पर जो ... मनमौजी है , सरल है , नहीं जानती कि.. साहित्य क़ी डगर है कठिन , सागर तक पहुंचने में उसे पार करने हैं , छोटे से बड़े सभी , अडिग प्रहरियों को , जो समझते हैं ... सीमा को अपनी धरोहर , भ्रम में जीते जो अक्सर कि.. उनसे अच्छा व सच्चा कोई नहीं है , नहीं समझते जो सृष्टि का नियम ... जो कल थे वे आज नहीं हैं , जो आज हैं , उन्हे भी पीछे हटना होगा ... वैसे ही जैसे .... बागों म
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दहेज और बेटियाँ ____________________ बड़े अरमानो से उन्होने जिस बेटी को पाला था, उसके मासूम माँगो ना कभी उन्होने टाला था , समाज धर्म निबाहने बेटी को वहाँ क्यों विदा किया ... भूखी मकड़ियों का जिस घर में बड़ा जाला था ! नए माहौल में ढलने की दीक्षा का मानो असर था , बेटी ने हर कष्ट को छुपाकर सब बेअसर किया था , मायके की खुशी की खातिर क्यों उसने बलिदान दिया ... भूखे भेड़ियों ने जब रोज उसका जीना दुश्वार किया था ! अपना हँसता खेलता परिवार उन्होने बर्बाद किया था , बेटी के दहेज की खातिर पिता ने घर को बेच दिया था , दर दर की ठोकर खाकर दामाद को चिराग क्यों समझा .... जिसने खुद अपने जालिम हाथो से पत्नी को जला दिया था ! बेटी ना रही निर्मम समाज ने भी साथ छोड़ दिया था , राख में लिपटी थी बेटी जिसे लाल जोड़े में विदा किया था , अज़ब है दुनिया की रीत क्यों उन्होने भी उसे निबाहा था ... अपने जिगर के टुकड़े को जब जानवरों के हवाले किया था ! आज दौर बदल गया पर बेटी आज भी बिकती है , क़म दहेज लाने पर लाश भी ना उसकी मिलती है , सुरक्षित नहीं बेटियाँ क्यों ना ये आग बुझ
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गुलाबी सपने __________________ गुलाब सी नाजुक कली, बड़ी अरमानो से पली, छोड़ बाबूल की गली पहुँची दूल्हो की नगरी जहाँ लगती थी बोली क्रूर दहेज के लोभी... थे तौलने बैठे ,,, उसके अरमानो की गठरी थे जिनमें गुलाबी सपने..... हल्के थे सो बिखर गए ... गुलाब के पंखुडियों की तरह .... धन और गाड़ियों की शक्ल में .... चंद दिनो के लिए .... गुलाबी अहसासो में ... भ्रमित होने के लिए और फिर ......... गुलाब सी उसकी जिंदगी गुलकंद सी ...., परोसी जाती , या तोड़ी जाती , उसकी भावनाए.. मसली जाती , और फिर ....... नीरस जान फैक दी जाती ... या जला दी जाती ... क्योंकि यह , अमानवीय व्यापार , फिर आरम्भ होता .. फिर लगती नयी बोली , फिर एक नन्ही कली पर , जिसकी आंखो में भी तैरते , सुंदर् भविष्य के रुपहले गुलाबी सपने , वह मासूम कली जो युगो से बनती आई और जाने कब तक ..., बनती रहेगी ,,,,, दहेज लोभियों की बली !
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कलयुग में कान्हा ________________________ आज देखो हर ओर हर आँखे रो रही है , शायद कान्हा तेरी रूह सो रही है ! कैसा ये अनिश्चितता का दौर है , चारो ओर अराजकता का शोर है ! दुखी सुदामा हर गली में बिलखता है , कंश राज का अब बोलबाला दिखता है ! बहिने आज हर क्षण् अपमानित होती हैं , पर कान्हा तेरी उदारता ना कही दिखती है ! भ्रष्टाचार दीमक देश को चाट रही है , अत्याचार का दंश दिलो को पाट रहा है ! आज हर ओर माँ का बँटवारा हो रहा है , कान्हा तेरे संस्कार संसार भुला रहा है ! निरथक जात-पात का भेद बढ़ गया है , आज हैवानियत का क्रूर पद बढ़ रहा है ! पहाड़ो पर मेघो ने उजाड़ दिया जनजीवन है , आज सूना-सूना हर माँ का घर आँगन है ! वनप्रदेश और जनजीवन हर दम कराहता है, तेरी मधुर बाँसुरी धुन को हर घर तरसता है ! आज भी यहाँ दुर्योधन जैसे सत्ताधारी हैं , पांडव देख आज भी दर दर भटकते हैं ! कलयुग में भी इंसानियत का मोल नहीं है , हर चौराहे पर मासूम लहू बेमोल बहता है ! गीता ज्ञान किताबो में सिमट गयी है , रिश्तों के आडंबरों में दुनिया खो गयी है ! आज फिर कान्हा तुझको आना ही है , आज फिर एक अर्जुन को जगाना ही है ! जन्माष्टमी
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इमानदारी जहाँ रोती हो , बईमानी जहाँ हँसती हो , वहाँ लोकतंत्र का मोल नहीं , भ्रष्टाचार जहाँ फलता हो ! ________सुनीता __________________________ असल मित्र वही सच्चा जो प्रभू मन भाए ! शेष जगत में सब कुछ मिथ्या जो मन भरमाए !! ______________सुनीता शर्मा _____________________________ आँसू मन के मोती हैं ...यूँही नहीं बहा करते , जीवन के सच्चे साथी ...यूँही नहीं छूटा करते , बीमार आंखो में न आते कभी आँसू क्यूंकि , आँखो का यह श्रृंगार हर किसी को नहीं मिला करते ! **********सुनीता शर्मा _____________________________ देश में इंसानियत का सुंदर् गुलशन हो , अमन चैन से हर ओर महकता उपवन हो , त्योहारो की रौनक बढ़ेगी तभी जब .... दूर दूर तक रोता हुआ न कोई आंगन हो ! _______________सुनीता शर्मा __________________________ विचार प्रवाह रुक नहीं सकता , पंछी उड़ना भूल नहीं सकता , लाख फंसे भवर में कश्ती .... ईमान क़ा असूल बदल नहीं सकता ! `-सुनीता शर्मा _____________________ दुख होता है जब नाम ही परेशानी का सबब बन जाए , कठिन तपस्या उन्नति में कंटक का सबब बन जाए , मुश्किलों से लड़
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उम्मीद ****** जन्म और मृत्यु नदिया के दो किनारे एक शाश्वत सत्य जिसका भेद न जान सके कोई , ऐसा सत्य जहाँ मानव हार जाता ......... फिर भी ,,,, उम्मीद की नाव पर सवार , नदी के रहस्यों को खंगालता अपना जीवन गवाता किन्तु हारता नहीं , बस ........... उम्मीदों को अमृतसागर मान जीवन नदी में गोते लगाता अपने दुखो के घनेरे जंगलों की भयावह रातों में सुख की रौशनी तलाशता ........ ताउम्र एक उम्मीद बनती अमृत लेप व्यथित मन पर पीड़ित देह पर एकटक बाट जोहते उस विश्वास पर जो अटल है अमरत्व लिए है जो जीवनदाता है और वह .......... म्रत्युहरता भी है वही असल मंजिल है सुखो का धरातल है जीवन सुधारक जीवन उद्धारक भी ... जिसके साथ साथ रहने पर पलते हैं सुखद भविष्य के तिलस्मी सपने !!
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उत्तराखंडी किसान _____________________ बादलों का रौद्र रूप देख , आँखे मेरी छलक रही हैं ! अपने उजड़े चमन को देख , घुमड़ घुमड़ कर बरस रही है ! जिस शिद्त से मैंने सपने देखे , धड धड करके सब चूर हो गए , सपनों को डुबोकर बदली अब भी ,दिल की धड़कन बढ़ा रही है ! वर्ष भर की कठोर मेहनत से , हम जीवन उजियारा करते थे ! कम अन्न और धन से भी ,मिलजुल कर गुजारा करते थे !! प्रकृति को पूजते हम किसान , तूफानों से कभी न हारे थे ! फिर नव जीवन तलाशने में ,ऐसी बर्बादी से भी न डरे थे !! विकास की राह में बढे सभी ,हमको सब ने बर्बाद किया , अपना घर रौशन कर , उन लोगों ने हमे अन्धकार दिया , मुफलिस जीवन में रह रह कर जहर का घूँट हमे मिला , स्वार्थी लोगो पर विश्वास करने की ,सजा महादेव ने हमसे लिया ! बहुत दुःख सह लिया हमने , अब न बढ़ने देंगे दुखो को ! अपने जीवन के खार बाँट देंगे ,चमन से फूल चुनने वालो को !! मिटटी के हम पुजारी , मिटटी की लेते आज सौगंध ! मातृभूमि के गद्दारों को , मिटटी में मिलाएंगे रहेगे प्रतिबद्ध !! ****************************** *********
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बादल आसमा में बादल होते आँसू धरती माँ की आँखों के, उसकी सब्र का बंधन फटता देख बढ़ते अत्याचार को , वही प्रतिशोध बादल बनती विपदा बाढ़ इंसान पर , कुछ पलों में फिर देती वही सबक इंसान को , चारों तरफ पानी पानी का प्रलय दिखाती , घर बह जाते,जीवन मिट जाते,त्रासदी दिखाती इंसान को , फिर भी जारी है इंसान का प्रकृति से खिलवाड़ का खेल , वर्षों से सचेत कर रही प्रकृति मूढ़ अहंकारी इंसान को , अपने ही हाथो से नष्ठ कर रहा इंसान मानव सभ्यता का , खोखली धरती ले रही प्रतिशोध जिसे भोगना पड़ेगा इंसान को ....:(
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मुफलिसी इस धरा पर रोटी समान मेरे जीवन ने , नित्य नए नए अनुभव जिए हैं , पकती ,फूलती और जलती रोटी सी , मैंने हालात से समझौते किये है ! सपनो का महल अब उजड़ गया , जबसे हाथ तुम्हारा थामा है , जीवन में हर पल खाया धोखा , जबसे तुम पर अटूट विश्वास किया है ! मुफलिसी भरे इस जीवन में , दिल रोज गागर भर रोता है , घर के बच्चे- बूढ़े भूखे पेट सोते , पर यारों के लिए रोटी सिकती है ! सूखी रोटी से निराश होकर , क्यूँ सब पर कहर बरपाते हो ? निराश जीवन को नशे में डुबोकर , क्या किसी ने कभी सुख पाया है ? माँ बाबा से क्या शिकायत करूँ जब , दहेज का आभाव मुझे यहाँ लाया है , जीवन भर बदलाव की एक आस लिए , कम खर्चों में घर हरदम सम्भाला है ! कोई नहीं समझा मेरी पीड़ा को , हमसफर ही जब साथ नहीं है , गरीबी की आग में झुलस रही , ख़ुशी की अब कोई आस नहीं है !
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ममता का सागर ______________ माँ होती ... ममता का सागर अपनी कोमल लहरों के ममत्व से .. अपनी संतानों को जीवन तूफानों से हर पल बचाती , उसकी शांत लहरे और गरजते स्वर , में बच्चो की परवाह सागर की भाँती कभी शांत और गंभीर , तो कभी ...... हैरत करती आवेग का प्रचंड प्रवाह मानो अपने सृजन को नस्ट करने को आतुर ... किन्तु अपने भीतर ..... ज्वार भाटा समान अनगिनत राज छिपाकर जीवन के सुलभ मोती ममतामयी छाया देती , सदियों से माँ एक शाश्वत सत्य समुद्र की समदर्शी सुख दुःख की लहरों में अमूल्य निधि !
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तकदीर की तदबीर माँ भारती की तकदीर की तदबीर आज बदल डालेंगे , रेत के पन्नो पर जीवन की नई तस्वीर बना लेंगे ! मृत भावनाओं की बढती विस्तृत मरुभूमि पर , सब मिलकर विश्वास धर्म का सावन बरसा देंगे ! बिखरते रेत से कठिन इस जीवन डगर पर , हम मिलकर भजनामृत का समर ताल ढूंढ लेंगे ! धरा पर शुष्क चट्टानों सी मृत मानवता पर , सौहाद्र के आदर्शों की अब फसल उगा लेंगे ! आज जीवन धूप के विषधर बाणों की शैया पर , सम्भावनाओं की मखमली कालीन बिछा लेंगे ! निसदिन आतंक के सायों से उजड़ते घरौंदों पर , इंसानियत की असख्य मरु कश्तियाँ बढ़ा लेंगे ! माँ भारती के स्वर्णिम आँचल परमिलकर हम सभी , शांति व् भाईचारे और विश्वास के सितारे बुन लेंगे !
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जीवन उद्धार दुखो से डर कर कभी, देखो तुम न मायूस होना , दूसरों की खुशनसीबी देख कभी आँखें नम न करना ! इस स्वार्थी जगत में , निंदा से कभी न विचलित होना , सत्य की डगर मुश्किल है , झूठ के आगे न कभी शीश नवाना , उच्च चिन्तन के बहाव में , समाज सुधार हेतु सदैव प्रेरित होना , जीवन की सुख दुःख धारा में , तुम ज्ञान की ज्योत जलाना ! दीन दुखियों की सेवा में , तुम कभी हतास मत होना , दूसरों के जीवन उद्धार में , कभी तुम अपना ईमान न डगमगाना ! खतरों से घबराकर ,कर्तव्य पथ से कभी विचलित न होना , स्वहित त्याग कर ही तुम भी सबके संग हरदम मुस्कुराना !
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बदलते वक्त में कलमकार. कलमकार के शब्दों में अब समाज कैसे प्रतिबिंबित हो, रोटी के जुगाड़ में कागज और स्याही भी जब रूठी हो, जब दुनिया के अफ़साने लिखने की कीमत भी न मिले, अपने ही बिखरे सपनों को देख मन क्यों न द्रवित हो। समाज की धड़कन कलमकार की पूछ जब न होती हो, सच को सच लिखने वालों की जब न कद्र होती हो, जीवन के विद्यालय में जब अँधेरे में छुपना पड़ जाए, भ्रष्टाचार से बिकती कलामों पर मन द्रवित क्यों न हो। कलमकार के शब्दों में जब इंसानियत ही मिटने लगे, वेदनाओं को अब चाटुकारिता का आडम्बर प्यारा लगे। कलमकार के जीवन में रसखान बनना है आसान नहीं, भरकर उदासी जेबों में लेखन करने में कोई शान नहीं, सच की धारा में अपना अस्तित्व निखार लेना मुश्किल, एवरेस्ट की चोटी चढ़ना जैसा भी दुष्कर है काम नही । कलमकार को बदलते वक़्त के साथ कदम मिलाना होगा, सत्य और निष्ठा के प्रति हर दायित्व को निबाहना होगा। सामाजिक विसंगतियों से उसको समाज को बचाना होगा, अपनी कलम की धार से सब कुरीतियाँ नष्ठ करना होगा।
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प्रेम प्रेम तो है जीवन श्रृंगार , लाती है खुशियों की बहार , अंतर्मन में बसती सौंधी खुशबू सी , सुदृढ़ रिश्तों का उत्तम आधार ! सुंदर गीतों से झंकृत संसार , प्रेम के बोल हैं जिसके श्रृंगार , जीवन में प्रेम है ब्रह्मानंद , खोलती सदा उन्नति के द्वार ! प्रेम भावनाओ का है संसार , सुंदर अहसासों का सुदृश्य द्वार , खिलता जिससे मन आँगन , दिलों का होता जिससे सुंदर श्रृंगार !
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ग्राम की शान यादों के पन्नो से , बचपन की गलियारों में , गाँव की सोंधी माटी की , पावन खुशबू , खो गयी शहर के प्रदूषण में ! भोर की किरणों संग , खिलता था हर घर आँगन , प्रकृति के हर जीव की गूंजती थी , मधुर संगीत , खो गयी शहरी वाहनों के शोर में ! पनघट पर गाती नार , मिलकर करते थे हर कार्य , गाँव की बन धडकन देती थी , एकता का संचार , खो गयी शहरी स्वार्थी गलियों में ! चरवाहों की हंकार मवेशियों के हर दल का कूदना फाँदना बनता था , जीवन की मुस्कान , खो गयी शहरी आपाधापी में ! बैलगाड़ी की टन टन , बच्चों की मस्ती की सवारी बन , ग्राम अर्थव्यवस्था का होता साधन , ग्राम की शान , खो गयी वाहनों के बढ़ते रैले में ! प्रेम और सौहादर्य का प्रतीक , ग्रामीणों का सादगी भरा जीवन , आम पीपल की छाँव तले , बढ़ता जिनका बचपन , खो गया शहरी आधुनिकता के प्रवाह में ! आज शहरी चकाचौंध से दूर , परिकल्पनाओं के आंगन में , ढूंढ रही यादों की अमिट छाप , वे अनमोल क्षण खो गए जो शहरी जीवन की दिनचर्या में !
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मानवता जग पर पल पल बढ़ते जीवन संघर्ष , धरा पर कैसे हो फिर मानव उत्कर्ष , कलुषित मानवता की परिणिति से बाधित , क्या फिर से मात्र युद्ध होगा निष्कर्ष ? मृत आदर्शों की आधारशिला , जर्जर कर रही जनजीवन , संस्कृति विकास को न्योछावर , जरूरी एक सजग सुगठित संगठन ! जीवन गति का अवरोध क्रोध , मानव साम्राज्य का विध्वंशक , नव संस्कृति निर्माण की लगायें पौध , कारवाँ बढे मानवता बने उसकी परिचायक ! भू प्रेमी निष्ठुर मन का काफिला , बढ़ा रहा अपना आतंक साम्राज्य , दैत्य वंशज का न हो विस्तारण , बढाओ मनुजता दल का निडर साम्राज्य ! बढ़ते आतंक के मरुस्थल पर , मानवता की फसल लगाओ , खून की नदी बहाने वालों को , आत्म निरिक्षण का सुमार्ग दिखाओ !
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मैं और तुम ( नर और नारी ) नारी तुम मेरे जीवन संगिनी नही प्राण उर्जा हो , तुम्हारे हर अक्ष का मैं सदा ऋणी रहा और रहूँगा, सीता, सावित्री,अहिल्या ,कुंती ,द्रोपदी,गांधारी , सब रूपों को पाने का मैंने साहस दुस्साहस किया, तुमने दया की सम्बल बन सदा मेरा सत्कार किया, तुम सब रूपों में बनी भारतीय संस्कृति की परिचायक , मेरे मरने पर तुम कभी रणचंडी ,कभी सती कहलाई , मेरे हर जुल्म को तूने सहर्ष स्वीकार किया , मद मैं चूर मैंने तेरा कभी सम्मान कभी अपमान किया , मैंने तेरे तीन रूपों को सदा पूजा और पूजता रहूँगा , पर आज मै और मेरा अस्तित्व तेरी नजरों में क्यूँ गिर गया ? अपने अस्तित्व की लडाई में तूने मेरा तिरस्कार किया , बसनो को कम करना, मर्यादा की सीमा लाँघना क्यूँ तूने सीख लिया ? हम हैं महान अपनी सारी संस्कृति गौरवशाली है ,क्यूँ तूने इसे खंडित किया ? पाश्चात्य संस्कृति को अपनाकर तूने माँ दुर्गा का अपमान किया , आज गाली स्वरूप लगती नारी जबसे तूने मदिरा पान किया , नग्नता की सीमा लांघकर तूने क्या गौरव शोहरत हासिल किया , तेरी इस भूल देख आज बन गयी अभिशाप हर माँ बहन बेटी पर , जैसा बोते वैसी फसल क