पतझड
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पत्ते पत्ते सूख कर दरख्त से फिर बिछड़ गए
साथ एक दूजे का छोड़कर जब्त से पिछड़ गए
अहसासों के कालीन बन सरे राह बिखरे ऐसे
कि दूर ही सही चेतना से जाने क्यों फिर अकड़ गए
हवा संग मिलकर जब आंख मिचौली खेल लिया बहुत
लगा थककर चूर होकर वे सब यहाँ वहाँ पड़ गए
देखता रहा दरख्त अपने जिंदगी में उनका का भेद
साख से गिरकर एक दिन वे पत्ते भी सड़ गए
बेसिम्त जिंदगी का यह अफसाना सिखा दिया
उसकी रज़ा से फ़क़्त सब बाग़ क्यों उजड़ गए
अजल से फ़ना होने का दस्तूर मैं निबाहता गया
फ़जाओं में बहारों की हक़ीक़त सुन तुम बिगड़ गए
________________सुनीता शर्मा

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