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Showing posts from March, 2013
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  यूँ बने हम भी मूर्ख   वक़्त का परिंदा  कबका उड़ गया किन्तु आज भी मीठी यादे  मन को गुदगुदा जाती है ! बात उस समय की है जब हमारी स्नातकोतर  की परीक्षाएं होने वाली थी ! मैं किसी कारणवश  अपने गाँव चली गयी थी जब  वापिस आई तो परीक्षा में एक दिन शेष था ! परीक्षा सारिणी  घर पर आ चुकी थी तो देखा हमारी परीक्षा 30 मार्च  से आरम्भ  थी , पहली तारीख को कोई परीक्षा न होने के कारण  मैंने अपनी सखी रजनी  संग ,  कॉलेज के सहपाठियों को  बेवकूफ बनाने की योजना बना ली  ! फिर क्या था 29 मार्च को  रजनी और मैंने  साथ मिलकर सभी के लिए कुछ न कुछ सोच कर खूब खुश हो रहे थे ! उसके बाद हमने अपनी प्रथम परचा 30 को देकर  2 तारीख के पर्चे की तैयारी  कर ली थी !31 तारीख साय को हमारे एक सहपाठी  हर्ष  का पेजर  पर मैसेज  आया कि  कल  मेडिसिन की थीसिस जमा करने हैं ,समय 10 बजे ! बस सारी  योजना की मस्ती काफूर हो गयी और रात को 2 बजे तक मौखिक की  तैयारी  करके  मैं और रजनी निश्चित समय पर विश्वविद्यालय  पहुँच गए ! हमारे डिपार्टमेंट में न तो कोई विद्यार्थी  और न कोई शिक्षक दिखा  तो हम सीधे सूचना कक्ष में पहुंचे तो हमारी स
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इंसानियत इंसानियत चरमरा उठी  पाषाण  ह्रदयों के प्रहार से  शब्द  बिखर गए  भावों  की गरिमा  बिक रही सरे बाज़ार  कदम ठिठक  गए  रूह  रुसवा  हुई  मित्रता की ठगी से  आचरण की विभस्ता  मन की कोमलता  पर वज्रपात  करती  आज की संवेदनहीनता  रिश्तों  में  आडंबर  कागजी  भावनाएं  मुर्दादिल  इंसान  वहशी  ख्वाहिशे  चित्कारती  धरती  गरजता  आसमां  दहला  रही अंतर्मन  क्यूकर  विश्वाश  करे  मनुजता  खो गयी कहीं  बहिनों   का सत्कार नहीं  बेटियों  की चाह नहीं  प्रेयसियों  के पीछे  रहना  अर्धांगिनी हो शालीनता भरी  बेटियों के दहेज़  पर बवाल  बहुओं  को दहेज  संग अपनाना  कराह रही है हर कोख  नीलाम होती तुलसी  सुर्ख़ियों  में कत्लेआम  निरुतर सवाल   अपराधी  बलवान  नफरत सस्ती   मुहब्बत महंगी  जीवन  क्रीडा  अंधकारमयी  दुआवों पर रस्मी पहरा  हर  शक्स    का दर्द बड़ा  अहंकार  की कश्ती पर खड़ा  क्षणभंगुरता  भूल रहा  अनमोल  जीवन खो रहा  जीवन के झंझावतों  में  जिन्दगानियां  बिखर रही !
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भारत माँ *********** भारत  को हमने माँ की उपाधि दी ही क्यों ? जब लूटनी ही थी उसकी अस्मत गली गली ! ममता की छावनी  से भी नवाजा  क्यों ? जब उसके आँचल  की लाज का मोह नही ! उसको बसनरहित  करने दुर्योधन  बन  रहे  हो  क्यों ? कबसे अपनी अमूल्य  निधि को विदेशों में  छुपा  रहे हो ! आपसी रंजिसों  से खून की होली तक क्यों ? पडोसी मुल्कों को जैसे घात का मौका दे रहे हो ! नशे की ओर  अपने नौजवानों  को धकेलकर क्यों ? अपनी अर्थव्यवस्था  को कमजोर कर रहे हो ! नशे के आगोश में बच्चे बन रहे दरिन्दे क्यों ? अब हर माँ बहन बेटी  को खून के आँसू  रुला रहे हो  ! डूब रही देश की कश्ती  बदल रहा मौसमी मिजाज क्यों ? आज घर घर में ' आतंक '  का क्रूर साया  ले रहा जन्म ! घट रही मानवीय संवेदनाएं कीकड़ बन रही भावनाएं क्यों ? महंगाई , भ्रस्टाचार  ,दुराचार ,हिंसा अब बन गए माँ का श्रृंगार ! त्योहारों की गरिमा बन रही फूहड़ता का व्यापार क्यों ? होली के हूदडंग  में खुलकर होती अश्लीलता के हदे पार ! हर बात पर शाशन को अँधा बहरा  घोषित करते हो क्यों ? किसके नि
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आज ' विश्व गौरैया दिवस ' है ......  सभी प्रकृति प्रेमियों को शुभकामनाये  गौरिया  जाने तू कहाँ गयी  हमारी बचपन की  प्रेरणा  प्यारी गौरिया  तेरा फुदकना  मेरे आँगन सुबह साँझ बजती थी कानो में मीठी धुन सुबह मेरी खिड़की से अंदर आती बनकर मेरी प्रिय सखी किताबों पर चोंच मारती तुम मानो कहती तुम समझती हो दुनिया के अनंत रहस्य तुम बिन आज सूनी .. मेरी खिड़की रोज निहारु बाट शायद तुम खेल रही कोई खेल नया मानव को जागृत करने का कोई नया दिलचस्प खेल पर मेरी उदासी तेरे चहकने पर होगी खत्म बस बहुत हुआ अब न सता आ लौट आ अपने घर प्रिय सखी तुझ बिन सूना मेरा आँगन ....
असली संत  जीवन की टेढ़ी मेढ़ी पगडंडी , सत्संग और संस्कारों से निभती , संतों की कुशल परख वाणी , मृगत्रिश्नाओ के भवर से हमे बचाती ! फरेबियों व् पाखंडी से भरा संसार , भगवा चोला धारण क़र रहे अत्याचार , हनुमान का सा रूप धर करते प्रहार , संत रूपी माणिक ही करेंगे सदा उद्धार ! भगवा चोले के आडम्बर से बचना होगा , देख परख कर निज संत चुनना होगा , दुआओं में असर जिनके उनसे जुड़ना होगा , भेड़ चलन से बचकर अपना मार्ग ढूंढना होगा !
महिला दिवस  समाज को महिला दिवस की दरकार नहीं एक दिवस से उसको कोई सरोकार नहीं सुनियोजित करो अब पुरुष दिवस महिलाओं को यूँ बरगलाने की जरूरत नही हर जगह हर दिवस सम्मान कब दोंगे किसी एक दिवस को ही क्यूँ पूजोगे कोख से लेकर मृत्यु तक बहिस्कार ऐसा अनर्थ कब तुम सब छोड़ोगे एक दिवसीय सम्मान नही माँग रही युगों से समाज से प्रश्न पूछ रही अधिकारों की बड़ी बड़ी बातें छोडो अपने हालातों से जो खुद ही जूझ रही महिलाएं भी अपने कर्तव्य समझें हक पाने के लिए कदम बढ़ाएं अपने वर्ग के दर्द को समझें अपने प्रति हो रहे दुर्व्यवहार को समझें नारी अराध्य भी तो पतिता भी उद्धारक , सवेदनशील व् क्रूर भी लडको को सिर पर बैठाना अत्याचारों की गुहार क्यूँ फिर भी नारी तुम शील ,शालीनता व् धैर्य की धवल किरण बनो पुरुष तुम नशा , घृणा व् हिंसा को त्याग सुदर्शन चरित्र बनो पुरुष व् महिलाएं ..सम्मान एक दूजे का करो सुंदर सुदृढ़ समाज की परिकल्पना साकार करो
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फुलेरा दूज   आओ देखो फाल्गुन आया संग फुलेरा दूज लाया राधा कृष्ण के मिलन दिवस पर हर युगल मुस्कराया कर दो सभी अपने जीवन से दूर गमगीनियों का साया शुभ नक्षत्रों की शुभ उर्जा से युगलों को मिलती रहे मधुर छाया ! सकरात्मक चिन्तन का अब जग में प्रवाह हो , हर उर में प्रेम अपनत्व की भावना का संचार हो , शुभ नक्षत्रों का सभी युगलों को आशीर्वाद प्राप्त हो , खुशियों का हर घर उपवन आबाद हो ! फाल्गुन आया देखो सारा जग हरसाया , राधा कृष्ण के मिलन रुत से हर फूल मुस्कुराया , शुभावसर पर होता धरा गगन का मिलन , गन्धर्वों व् गोपियों ने भी की थी फूलों की बरसात इस दिन ! प्रेम रहे सभी युगलों में ताउम्र अमर हाथो में हाथ लिए बढ़े वे सदा कर्तव्य पथ पर सृष्ठी के उर्जा का होता रहे हर उर में संचार राधा कृष्ण का आशीर्वाद मिलता रहे उन्हें जीवन भर !
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नारी  हर  श्वास  में उसका नाम लिखकर रखा है ! बड़े जतन से अब तक जख्मों को पाल रखा है !! हर  श्वास  में उसका नाम लिखकर रखा है ! बड़े जतन से अब तक जख्मों को पाल रखा है !! जीवन का सफ़र अब कितना बेगाना सा लगने लगा  परछाईयों  के अक्स  को जबसे रौशनी से बचाकर रखा है ! मुरझाये  गुलिस्तान  में फूलों की सिसकियाँ  उसकी साजिशों की हर दुकान  को सजाकर रखा है ! खुद हम  मिटते रहे दुनिया को बसाने के लिए  इतिहास के हर पन्ने  पर जख्मों के निशाँ दर्ज करवा रखा है ! साजिशों से बेखबर उसके इरादे भाँप न सके  जिसने मेरे दर्दे अश्क  को सरे बाज़ार  नीलाम कर  रखा है ! दुनिया में इंसान की कद्र आज बस इतनी ही  किस्से कहानियों में तम्मनाओं  का संसार बसा रखा है ! हाय .. मेरे दर्द ही अब मेरी पहचान बन गए  जिन आकृतियों को मैंने शब्दों से छुपाकर रखा है ! जीवन क्या है 'अणु ' चंद साँसों का बंधन  जख्मी दिल को प्राण निकलने तक संभाल रखा है ! *******************************************************चित्र गूगल साभार 
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बचपन बीता कंचों संग  खेले खूब मित्रों के संग  छोटे बड़े का भेद भूल  ढेर लगाते जीत सब रंग  ये मारा अब मेरी बारी  करले तू बचने की तैयारी  अरे इनपर क्यूँ झपट रहा  मैंने न छीनी तेरी पारी  क्या अजब दिन थे  वाह गज़ब ढंग थे  दिन सारा खोने में  होड़ लगते देख सब दंग थे  निराले गोल मटोल लूटने बैठे  भूख प्यास सब भूले बैठे घेर बनाकर गौर से ताकते  कहीं मुझसे ज्यादा न ऐंठ बैठे  एक से एक भरते झोली में  दुकानों पर गुहार लगाते मस्ती में  सबसे बड़ा हो या छोटा  होड़ लगाते बटोरने में  आज बच्चों को देखोगे  कंप्यूटर से कंचे कैसे खेलेंगे  प्रतिस्पर्धा ,परस्परता छोड़ो  ये भाईचारा कैसे सीखेंगे !
जीवन के तन्हाईयों में खुद की तलाश कर , परायी पीड में अपना जीवन निसार कर , वक्त के थपेड़ों की उथल पुथल , सब्र का मोल समझ जीवन उन्नत कर !! दिलों में बुझ रहे मानवता के दीप है, हर सडक पर खून की बरसात है , आगे बढकर कोई मदद क्यूँ करे, कुशाशन से मिलता क्रूर प्रहार है ! इंसानी विभिस्ता में गमगीनियों सा माहौल है ! नैतिकता अधमरी ,चीत्कारों से अंतर्मन काँपा है ! दहसत फ़ैलाने वालो से न डर ,हौसला रख ! मंजिल अब दूर नहीं , साँसों के आवेग को परख !!
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बादलों सा सुंदर न कोई , देख जिसे मयूर नाचे , देख आसमान में परिवर्तन , खुशियों से सब जन झूमें , धरती के गमों की बदली में इन्द्रधनुष सा सुख फले , प्रदूषित होती सृष्ठी पर वृक्षों से जँगल हों हरे भरें  अंधियारों के साए में जीवन फूलों का हर उपवन महके  धरती की प्यासी आत्मा को मेघो का हरदम स्नेह मिले , संसार से रंग भेद घटे और केवल मानवता की फसल बढे , रंगों में काला रंग जहाँ दुनियावी दुखों का दर्पण बने , इन्द्रधनुषी रंगों में देखो समझो खुशियों के कितने रत्न छुपे !
प्रणाम सुबह करो प्रथम प्रणाम परमेश्वर का , जग में जलता दिया जिसके नाम का , उसके बाद करो दर्शन अपने करों का  जिनमें संचित होता प्रकाश ज्ञान व् स्वास्थ्य का , फिर सुमिरन में प्रणाम करो धरती गगन पातळ का , जिनसे चलता जीवन सभी का , फिर होता प्रणाम घर में वृद्धों का  जिनके ह्रदय में बसता संसार आशीर्वाद का  फिर होता प्रणाम अपनी जननी का  संघर्ष झेलकर जिसने कर्ज निभाया धरती का  फिर प्रणाम का अधिकार होता पिता का  जिसने हमे सिखाया मुल्य अपने जीवन का  फिर प्रणाम का अधिकार शिक्षक का  जिसने भेद सिखाया ज्ञान व् फ़र्ज़ के अंतर का  वैसे तो प्रणाम में समाहित संसार संस्कारों का  जीवन में अपना लेना प्रणाम का पथ उन्नति का !
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दरख्त की व्यथा तुम्हारी हर शाख पर कई चुनरी , धागे बांधकर , मनौतियों का भार लादा गया , दुखियारों का मनमीत बन , तूने बाँहें पसार सबका साथ दिया बना तू सुख दुःख का संबल आस्था का बंधन एकता का परिचायक जहाँ लगे दुखों की कतार पीपल "औ " बरगद तेरे रिसते घाव अतृप्त आत्मा बाट जोहती रही सदियों से अपलक अपने कर्णधार का रोक सके .... टोक सके .... इस अन्धविश्वास को कि मैं मुक्त करता लोगों के संताप को , आह्ह ............. और मेरा संताप युगों से पराधीन अंतहीन ..... अस्तित्व की तलाश वनस्पति जगत की स्वछंदता से वंचित बंधा हूँ प्रकृति की उर्जा कैसे पहुंचे चुनरियों के नीचे वनदेवी मेरी माँ के आँचल से छीनकर मन्दिरों के प्रांगण में लाकर बाँध दिया मुझे उद्धारक मान और तुम्हारे पापों का परिणाम भुगत रहा अपने जन्म को कोस रहा नहीं बनना ....... मुझे पूजनीय वृक्ष चाहता ममत्व बस ..... जो मानव ने दिया नही बंधन बाँधने खोलने के सिलसिले में मेरे इर्दगिर्द चक्कर काटने में क्या मेरे अंतर्मन में झाँका कभी टटोला कभी कि मैं निष्प्राण नहीं , संवेदना रहित नही चाहता प्यार का सुंदर संसार आशा "औ " विश्वाश का
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हम जीते रहे , तुम्हे   देखने के लिए , तुम तो दिखते  रहे सपने  की तरह  हम परछाईयों  में जिसे तलाशते रहे , तुम मिले भी तो बेगानों की तरह  हम महल सपनों का जिनके बनाते रहे  तुम बसेरा  हमारा  तोड़ते रहे ,कायरों की तरह  हम गीतों  में जिसे गुनगुनाते रहे , तुम सरगम भूल गए अंजानो की तरह , हम मुसाफिर बन भटकते रहे  तुम तो निष्प्राण निकले मरु की तरह  हम जिनसे मान की चाह  रखते रहे  तुम  हमारा अभिमान लूटते  रहे दबंगों की तरह  हम  भूख  मिटाने  के लिए भूख सहते रहे  तुम निवाले छीनते  रहे गिद्धों की तरह  हम मासूमियत से हक अपना माँगते  रहे  तुम हमारे हक  लूटते रहे जालिमों की तरह  हम ताउम्र जिसे सहारा समझते रहे  तुम राहो में काँटे बिछाते रहे शिकारी की तरह 
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आखिर क्यूँ ? हुकुमरानो  के तोहफों में रोज  क्यूँ  इजाफ़ा  हो रहा ? मुफलिसी में इंसान  रोज  भूख से क्यूँ    बेजार  हो रहा ? दिलों  में  स्नेह ,त्याग  ,सेवा भाव क्यूँ समाप्त हो रही  ? मशीनों  की जगह आज भी  मजदूर सामान क्यूँ  ढो  रहा ? वाहनों की भरमार में  दिनों दिन  क्यूँ   जाम बढ़ रहा ? देश  में दिनों दिन अनेकॉनेक समस्यां  क्यूँ रोज बढ़ रही ? कहीं पर हिंसा कहीं  पर मौत  का मंजर क्यूँ दिख रहा ? अजब शियासत है ईश्वर  की ,जख्मों  पर लोगों के  नमक क्यूँ छिडक रहा ? भूख से बिलखते  बचपन  पर मुरलीधर की धुन क्यूँ कर्कश लग रही ?
दैनिक भास्कार में मेरे विचार  नारी सुरक्षा व् अधिकार  नारी के लिए स्थापित  तमाम संवैधानिक  उपबन्धों के बावजूद नारी जाति  अनिवार्य रूप से शोषित ,दलित और अधिकार विहीन है ! नारी की सुरक्षा व् अधिकार के कर्णधार तो स्वयं  पुरुष प्रधान समाज है ,जिसमें नारी को केवल प्रताड़ना  का अधिकारी समझा जाता रहा है ! कानून व्यवस्था  की आड़ में जब रक्षक ही भक्षक  की भूमिका निबाह  रहे हो तब किताबी अधिकारों व् नियमों में फेर बदल करने का क्या औचित्य है ! महत्वपूर्ण यह है की समूर्ण समाजिक व्यवस्था में ही सुधार लाया जाए ! स्त्रियों के प्रति अपराध बढने की मुख्य जिम्मेदारी समाज का चारित्रिक पतन है ! नारी की सुरक्षा के कारकों का उन्मूलन नितांत आवश्यक है ! नैतिक शिक्षा के साथ साथ ,सुधार गृह भी चलाने होंगे  जहाँ  पर पिछड़े वर्ग व् अशिक्षिक्त समाज के सभी सदस्यों को नारी की गरिमा गाथा ,व् उनके समाज के प्रति प्रगति  की दिशा में बढ़ते कदम की शिक्षा  दी जा सके ! हर क्षेत्र में वर्चस्व कायम करने वाली महिला अपनी प्राकृतिक कमजोरी के कारण कब तक शोषित होती रहेगी ! मानवाधिकारों के बीच सडक पर अस्मत की धज्जियाँ  उड़ते देख