घड़ी भर की वह बरखा फुहार बनकर आया
बेहरूपिया था मगर ऐतबार बनकर आया

वक़्त की बंदिशों मेँ पहचान ना सके जिसे
वो गुलशन मेँ मेरे खार बनकर आया

रिसते जख्मों की तदबीर तो जरा देखिए
वह तो रिश्तों का सौदागर बनकर आया

परवाज़ की बुलंदियों पर फक्र था मुझे
पर कतरने बहेलिया माहिर बनकर आया

रूह भटकती रही घने दश्त मेँ रात दिन
नागहा मेरा रकीब खंजर बनकर आया

Popular posts from this blog