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Showing posts from July, 2012
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HUMANITY In this world of vivid souls, Everyone is after reaching ones goal  Oh ! My soul in the search of humanity ,tries to find God , Where ever  I go for the exclusive identity , In search of Heart with prints of compassion , To understand love and brotherhood, To bring salvation with kindness and gratitude , To  bring peace in every distress soul , To wipe tears of all destitute , To bless an orphan ,handicapped,and lovers of humanity, To bring laughter in resentful souls, Oh! My Almighty ,give me courage ,strength and wisdom, To serve humanity not by words but in action , So that this world of vivid souls feels your touch .
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मानव  देखो इंसानियत से भागता आज मानव  मिथ्या का आवरण ओढ़ता मानव  अपनी छवि को संवारने में मदहोश मानव  दूसरों के कंधो पर से वार करता आज मानव  अपने अहंकार में रिश्तों की बुनियाद हिलाता मानव  प्रेम ,प्यार ,वात्सल्य को दरकिनार कर विश्वाश को दंश देता मानव ...... देखो इंसानियत से भागता आज मानव  इर्ष्या ,द्वेष का आवरण  ओढ़ता  मानव  अपने अहंकार  में मदहोश मानव  छोटे   मोटे  विवाद  को  विषाद  बनाता  मानव  जीवन अर्पर्ण से खिलवाड़  करता मानव  घर ,गली ,शहर ,नगर  में हिंसा  फैलता मानव ........... .देखो धरती से विश्वाशघात  करता मानव  प्रदुषण ,वन्नोमूलन ,और हिंसा का आवरण ओढ़ता  मानव  अपने निज स्वार्थ की खातिर धरती का विनाश करता मानव  लहुलुहान होती माटी पर अपने विवेक को खोता मानव  बर्बरता व् पशुता सा जीवन जीता मानव   खून का प्यासा बन रौंद रहा मानवता को अब मानव ....... .देखो प्रेम को केसे कुचल रहा आज मानव  पुरातनपंथ का आवरण ओढ़ता मानव  अपनी परवरिश की बलि लेता मानव   अपनी पंचायतो के तालिबानी फैसलों से भय फैलता मानव  चढ़  रहे भेंट  युवा  वक़्त, तकदीर और मौत
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लो  फिर लौटा अश्रुवर्षा  का मौसम  ख्वाबों  में दिखता था जो हरदम , आज तूफ़ान बन फिर उतरा इस धरा पर , बरसा सावन ,बरसा गगन ,बरसे  नयन , आज फिर उसकी यादों ने रुला दिया , तन्हाईयों में जिसका चेहरा देख लेती थी , आज फिर उसी चेहरे ने  रुला दिया , इंद्रधनुषी  सपने   बारम्बार  खंडित होते  रहे , आज फिर द्रवित हुआ हृदय  तेरी यादो में , पूछा रस्तों ने नयनो में अश्रु देखकर , आज वह कौन है ,जो फिर तडपा गया , जिस पेड़ की शाखा सूख  चुकी थी , आज फिर तेरी यादों में भीग गयीं , रूह की तश्वीर बस्ती थी जिसमें , आज वह फिर स्याह  रात बन गयी , जिन धागों में हस्ती थी जिन्दगी , आज वह छूट गयी अश्रुधारा  बन , जीवन भर हँसे खेले जिसके संग , आज फिर लौटा बन  अश्रुवर्षा का मौसम !!
आखिर क्यों ? हे सर्वत्र प्रेम सरिता बहाने वाले श्री लयकर्ता, क्यों तेरी ही बनायीं इस दुनिया में घृणा ,द्वेष व् अराजकता फ़ैल रही है ? क्यों तेरे ही बनाये किरदार एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे हैं ? क्यों तेरा गुणगान गाने वालों को रौंदा जा रहा ? क्यों तेरी आस्था के स्थान पर नास्तिक लोगों को पूजा जा रहा ? क्यों कहीं व्यभ्याचार व् कहीं विभस्त चीखें गूँज रही ? क्यों इमानदारी परेशान तो बईमानी हंस रही है ? क्यों तो हे त्रिकाल अभी तक आँखे मूंदे तुम कुछ सोच रहे ? क्यों नहीं हे लयकर्ता ,सर्वत्र व्याप्त इस असंतोष हेतु अपनी त्रिकाल दृष्टी अपना रहे ?
मौत  शब्दों के भयावह झंझावत खामोश हो चले , मन की त्रिश्नाओं में वीरान मौन सिमट गयी , मुस्कुराती फूलों पर घोर विभस्ता छाई , जीवन ज्योति को तिमिर सिन्धु में डुबो गयी, रूह चीत्कार उठी तेरे आने पर ए मौत ! चेहरों पर विभस्त विकराल दानवी चेहरे लिए , घर -घर ,नगर -नगर तेरे स्वरांजलि बने हुए , दहेज़ -वेदी से उत्पीडन ज्वाला लिए हुए , फूलों की सेज से सती कुण्ड तक बिखरी हुए , क्यों लील जाती जीवन ए मौत तू ख़ामोशी लिए हुए ! तुझे बनाने वाला स्वयं आशुतोष कहलाता , फिर तू क्यों इतना विष भीतर छिपाए मासूमो को लीलता , क्यों अनगिनत मासूमो के हृदय को तू दुःख रंजित करता , क्यों इन दहेजी दानवों के जीवन तू बकसता, क्यों न तू इन दहेज़ पिपासु गिद्धों के चीथ्रे उडाता 
इंसानियत के मसीहा  इंसानियत पर देखो आडम्बर का साया है , प्रगतिशील समाज पर विषधर की छाया है , भूख से बिलखता बचपन ,चंद रुपयों का तमाशा है , बसन रहित तन जिनके अक्षि प्यास बुझाते हैं , रजनी जिनके सहचर ,कृशनु जिनका जीवन है , तीर्थस्थलों में कनक चढाते ,पंडो के भरे पेट भरते हैं , वसुधा की त्रास भुलाकर ,व्योम की कल्पना करते हैं , विटप को छिन-भिन क्र पुहुप की चाह रखते हैं , तोयज हृदय में त्रिश्नाओं के मायाजाल बुनते हैं , पन्नग बन इस भव में व्यथा हर पल बढ़ाते हैं , अपने उमंग की खातिर ,वपु का सौन्दर्य बढ़ाते हैं , अमीर द्रुम न बन रंजो गम की अग्नि फैलाते हैं , गरीब की इंसानियत ,अमीर जगत में सुरसरि समान है , भागीरथी सा जीवन जीते गरीब इंसानियत के मसीहा हैं !
विदाई की घडी  विवाह के बाद आती विदाई की घडी , लग जाती है सबके नयनो में अश्रुझर्री, शुभ घड़ी कहीं तो कस्टदाई कड़ी कहीं , समझोता कहीं तो कहीं फर्जों की झड़ी ! विवाह के बाद आती विदाई की घड़ी , वरपक्ष बटोरते नोटों की गड्डी, वधुपक्ष का दर्द समझता वही जिसके ऊपर आन पड़ी , जुदा होती दिल के टुकड़े पर निगाहें अड़ी! विवाह के बाद आती विदाई की घड़ी , अश्रु कहीं तो कहीं आभूषण की देखी जाती लड़ी धैर्य का मोती पहन अज्ञात राह बढ़ चली नई डगर पर द्हेजी दानवी खड़ी ! विवाह के बाद आती है विदाई की घड़ी , अश्रु पीक़े पिता का घर छोड़ चली , कडवे बोल ,जख्मी हृदय न खोल सकी कभी , जीवन -मृत्यु के कट्टु अवसादों में हर पल घिरी ! विवाह के बाद आती है विदाई की घड़ी , आभावग्रस्त जीवन हर पल हँसकर जीती , कन्याओं को यमभेंट क़र न ले सकी सिसकी , जीवन चिता को हंस कर झेल गयी बेटी !!
वक़्त  मैंने पत्थरों में भी अकांक देखे हैं , जिसके निश्चल धरा में जीवन बसते हैं I मैंने पत्थरों में भी फूल देखे हैं , वक्त से टूटे वीराने भी महकते देखे हैं I मैंने पत्थरों में भी फूल देखे हैं , जीवन पतवार धोते रोते हुए देखे हैं ! मैंने पत्थरों में भी इंसान देखे हैं , अपनी पीड़ा मैं दूसरों के प्रेरक बनते देखा है I मैंने पत्थरों में भी फरेब देखे हैं , रिश्तों के बीम मसलते ,नासूर बनते घाव देखे हैं I मैंने पत्थरों में भी आपदाएं भी देखी हैं , अपने वजूद खोकर इंसानियत मिटते देखा है इ मैंने पत्थर में भी भगवान देखे हैं , दूसरों के जीवन हेतु समर्पित इंसान देखे हैं !!
पशु बलि  पशु बलि ऐसी ही एक अंधविश्वास भरी परम्परा है जिसमें किसी भी पशु चाहे वह गाय,भैंस या बकरी हो।इस उम्मीद से बलि दे दी जाती है कि उस पशु को देवता पर अर्पित करने से वह देवता प्रसन्न हो जावेंगे तथा बलि चढ़ाने वाले की सारी इच्छाएं पूरी ह ो जावेगी।अपनी मृगतृष्णा की पूर्ति के लिए दूसरे जीव का जीवन हरण करने की यह प्रथा भी कितनी विचित्र है।अपने लाभ के लिए किसी दूसरे की जान लेकर उसके खून की धारा बहाकर,उसके मांस के टुकड़ों को उदरस्थ कर क्या कोई धार्मिक क्रिया पूरी हो सकती है या किसी ईश्वर को प्रसन्न किया जा सकता है ! अपने अंग पर लगा हल्का सा घाव हमे अत्यंत पीड़ा देता है किन्तु दूसरा जीव हमारे लिए मात्र खिलौना जिसे हम अपने धार्मिक या मानसिक संतुस्ठी हेतु बलि देने की परंपरा को अनंतकाल से निभाते जा रहे हैं ,अपनी जिह्वा की लोलुपता मिटाने या पूर्वजों के बोझ को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढाने के बजाय हम प्रत्येक जीव को समभाव देखकर पूजा के अन्य मार्ग को अपनाये जैसे की कई प्रान्तों में बलि हेतु नारियल ,उड़द दाल ,कटहल या कद्दू का इस्तेमाल कर फिर उसका प्रसाद वितरण किया जाता है ! किसी की धार्मिक आस्था को ठे
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जिन्दगानियां  यह जिन्दगी यूही बिखर न जाये कभी , जिंदगानी के सफ़र में वह खो न जाये कहीं, रौनके भरी महफिलों में भी घिरी तन्हाई थी  फिर वही सूनापन ,वीरानी घिर आई थी  उससे रूठने मनाने में तिरस्कृत हैरानी सी  सूखे पर्वतों से शुष्क जीवन में बह रही उसकी अविरल स्नेह धारा बादलों की घुमड़ बना बीते जीवन चाँद की चमक में सूरज की तपिस त्याग व् स्नेह धारा में पनपती रंजिश देह के नश्वर सौन्दर्य के छलावे में कांटो का फूलों से यूँ मुस्कुराने में हर पत्थर के आँसुवों के भीगे जाने से भीतर की ज्वाला की तपिश में बाहरी द्वेष के फैले अंधकार में यूही भटक रही हैं जिन्दगानियां !!
श्री साईं मेरे .... तुम क्या हो , बहारों से पूछो , तुम कहाँ हो निगाहों से पूछो ! तुम्हारे आने की उम्मीद लिए , गमो के प्याले पिए जा रहे हैं ! कुछ चंद सांसो की डोर बची है , कुछ पल और जीने की आस लगी है ! ये दर्दे दिल कब तक सहेंगे हम , क्यों रिश्तों के बोझ सहें अब ! कभी तेरा चितवन में समाना , कभी तेरा तन्हाइयों मैं डुबोना ! आज ये रंगहीन जीवन के पन्ने , खास लगते उदासीन सपने ! काश यह मन भी अपाहिज होता , संकुचित दिल में ख्वायिशें न पालता ! और कोई क्यों इस धारा को समझे , और कोई क्यों इस पथरीले बाट पर चले ! मैं मूक शब्दहीन ,आशाविहीन प्राणी , तू शब्द्वाहक , निष्ठावान प्रतिबिम्ब साईं ! जब से आये जीवन मैं साईं तुम तब से ममतामयी हृदय की तस्वीर बने तुम !
मन  खोया था मन जब अंधकार के भवर में , मानव के अनबुझे -अनसुलझे व्यहवहार में , जब मरण का मार्ग दिखा गया कोई , तब दूर क्षितिज से माँ तुम्हारा साया , उतर आया जीवन में बन सुदृढ़ सहारा , धसते अस्तित्व के अंधियारे गलियों से मन में कोहिनूर बन उतर आई तुम माँ अब जीवन मरण का सबब जान गयी , मानव द्वारा जीवन की इस बुझती चिंगारी , इस मन ने अब वैराग्य रुपी हौसले की अलख जगा ली !
हे तारणहार श्री मुरलीधर  हे तारणहार श्री मुरलीधर     कर सादगी का श्रृंगार तेरे गीत पर मेरी धुन  जीवन पुष्प की राह चुन  तेरी लीला मेरी उलझन  मेरी नैया तू है खवैया  भोर की सुरमई बेला अमृतमयी होती यह विषधरा हे तारणहार श्री मुरलीधर ! हे तारणहार श्री मुरलीधर मेरी जिव्हा तेरे स्वर , अनंत काल से बहती तरंग मेरी वीणा तेरे संग जीवन संघर्ष के धूमिल पल मेरी वेदना तेरे गीत प्रतिपल गोधुली में ओजस्वी तेरी वाणी खिलखिलाती तेरी ख़ुशी से हसी , मेरी वीणा हे तारणहार श्री मुरलीधर !