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Showing posts from October, 2012
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                                                                                          मन  मन बहुत कोमल होता है और इसको वश में रखना कठोर व्रत  के समान होता है ! यदि मन अंतर्द्वंद  का शिकार होता है  तो प्राणी   का मस्तिष्क असंतुलित हो जाता है! जिन मनुष्य का मन शीघ्र  विचलित हो जाता है उसके परिवार में अनुशाषनहीनता  , अवव्यवस्था  , दुराचार जैसे गुण  पनपने लगते हैं !  मनोनिग्रह    अत्यंत महत्वपूर्ण धरोहर है ! इसके बिना न तो आत्मिक संतोष और न ही समृद्धि  प्राप्त होती है ! प्रत्येक  मनुष्य का मन भिन्न भिन्न आनंद में संतोष  प्राप्त करता है ! भौतिक आनंद जिसमें  भौतिक सुखों  की  वृद्धि  के लिए हर पल  अग्रसर रहता है  और फलांक्षा  में मन  में संतो...
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आज का कट्टू सच आँसुओं का कोई मोल नही , हर शक्स यहाँ खरीदार है , बेबसी का कोई भाव नही , हर अक्श यहाँ बिकता है ! रिश्ते का कोई खेल नही हर रिश्ता यहाँ तुलता है , स्नेह का कोई मेल नही , हर स्नेह यहाँ मिटता है !! २९ / १ ०  /२०१२  
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रक्त तो  अब पानी  है , इंसानियत अब कहानी है ! वक्त तो एक बहाना है , जिन्दगी बस पलों का फ़साना है !! ---------- सुनीता !
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SEPARATION A HAVOC ON CHILDREN Separation in families has disasterous impact on children .These days too much of bottleneck competition and growing expectations among spouse is leading to trends of family degeneration .The short sightedness  of the couple is forcing them to take major decision of divorce at the stake of their children's welfare . For children, divorce can be stressful, sad, and confusing. At any age, kids may feel uncertain or angry at the prospect of mom and dad splitting up. Conflict between parents—separated or not—can be very damaging for kids. It’s crucial to avoid putting your children in the middle of your fights, or making them feel like they have to choose between you. A pre-divorce house is like a battle ground awaiting for the war to begin, creating a hostile environment at home. Until a divorce is finalized and even thereafter, the spouses get entangled in clashes over the division of valuables and everything else owned or a part of the family...
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 जीवंत मृत्यु  जुदा होते रिश्तों पर वर्षों अश्रुं हम बहाते हैं , कुछ छल से ,कुछ विपदा से ,तो कुछ यम के मारे हैं ! मौत यदि क्रूर तो जीवन कटु  सत्य है , रिश्तों को खोकर दुःख सहने की हिम्मत जो बढती है ! दूसरों को सुख न दे सको  तो उनको दुःख भी नही देना है , पल पल जीते हुए भी इस संसार में मरकर जीना है ! लोग हमसे   मरणॊपरांत   जुदा नही होते हैं , वे तो जीवन भर परछाई  बन साथ हमारे चलते हैं ! हमारे चेतन  मन में जो  गमगीन     विचार होते हैं , उनका प्रतिपल  हमे त्याग कर चित को शांत करना है ! भावना में लायें श्रेष्टता  और कर्मों को सत्मार्गी  बनाना है , देह  की नश्वरता को समझ  जीवंत मृत्यु  निभाना है ! आभारी  केवल परम पितामह का बनना है ,  सुख दुःख में एक सा रहकर जीवन जंग जीतना है !! २०/१०/१२ ..
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इंसानियत पर सवाल  अनेक रूप बदलकर तुम क्या परख रहे हो ? क्या चरित्र  के बुनकर बन इतरा रहे  हो   , सत्यांकन  हो जिस उर में उसका पारखी है पारस ! समुंद्र में उफान दिखाकर तुम क्या परख  रहे  हो ? क्या अपनी  तीव्र लहरों की संरचना से डरा रहे  हो   , उसके  विराट हृदय में लहरों का स्नेह है बसता !  अग्नि ज्वाला बन तुम  क्या परख  रहे  हो   ? क्या अपनी उष्णता  का दम्भ भर रहे  हो , अग्नि पावक भी तो है वो यज्ञ  की  शान ! कंटक  बन तुम क्या परख रहे हो ? क्या अपने प्रहार से लहू की धार देख रहे  हो  , कंटक शूल भी तो है जीवन संघर्ष का  पथ प्रेरक ! मेघ बनकर तुम क्या परख रहे हो ? क्या अपनी गर्जन का प्रभाव दिखा रहे  हो  , मेघ विपदा भी हैं तो धरा की भी है अमृतधारा ! मृदा  बनकर तुम क्या परख रहे हो ? क्या अपनी  माँ के  गर्भ  का शोषण देख रहे  हो  , मृदा कब्र भी है तो है वो जीवनदायिनी ! पवन बन ...
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नवरात्रों के पावन सुअवसर पर दुर्गे माँ को समर्पित  मेरी रचना . जय जय माँ दुर्गे मरणोंमुख  जग  को आश्वासित  निस दिन करती तू  हे  दुर्गे माँ , व्यथित   अंतर्मन को ज्योतिर्मय  बनाती तेरी विराट छवि हे दुर्गे माँ , तेरी आभा मंडल में सुशोभित तेरे नौ स्वरुप हे दुर्गे माँ , इस सुप्तयुग  को विश्व शान्ति की नव चेतना की प्रेरणा से भर दो हे दुर्गे माँ , अमानवता  के मरण आचरण को मानवता के शुभ्र आचरण से भर  दो हे दुर्गे माँ , वाणी बने प्रखर और ममता का हो अलंकर्ण   तेरी महिमा में हे दुर्गे माँ , अहंकार  और द्वेष  से बंटते अपने बच्चों  की रक्षा करना हे दुर्गे माँ , स्पन्दित कर  दे  आज तू  हर श्रापित  कण-कण को हे  दुर्गे माँ , इस धरा  की नियंता  व् अभियंता तू ही तू हे दुर्गे माँ , तेरी  इच्छा की प्रतिध्वनि से स्पंधित होता ये जीवन  हे दुर्गे माँ , बिना सुकृत्य करे फलांक्षा  बसती सबके हृदय में हे सर्वज्ञानी  दुर्गे माँ , विषादित  ज...
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माँ में भेद न कर प्राणी 2, September 2012 माँ कौन है ...? केवल नौ दुर्गे जो आपकी यादों में नवरात्रों में चली आती हैं ! माँ के नौ रूप जो  हम सभी के दृष्टीकोण में सैदेव रहने चाहिए ! धरती ,अन्नपूर्णा , गौ , गंगा ,दुर्गा ,जन्मदायित्री, कर्मदयित्री , व् बूढी काया ! प्रत्येक घर -घर  में देवी के नौ स्वरूपों की विधि विधान से पूज कर व्यक्ति अपने आपको महान देवी का उपासक मानने लगता है ! इन नौ दिनों में व्यक्ति के व्यक्तित्व  में एक अलग निखार दिखने को मिलता है ! वर्ष में दो बार आने वाले इन नवरात्रों  की धूम गली -गली, नगर -नगर  देखने को मिलती हैं !इस समय तो कन्याओं की घर -घर  में तलाश होती है और फिर झूठ , आडम्बर और भगती  के परचम लहराने में प्रत्येक  घर आगे रहता है ! विडम्बना यह की जिस नारी के नौ स्वरूपों का जीवन भर तिरस्कार किया जाता है वे इन नौ दिनों में इतनी पूजनीय क्यों हो जाती है ? आप सभी के दृष्टीकोण में शायद देवी के नौ स्वरुप धार्मिक महत्व के होंगे किन्तु मेरे लिए माँ के नौ स्वरुप हैं -दुर्गा माँ , धरती माँ ,अन्नपूर्णा माँ , गंगा माँ ,...
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रिश्तों  का  दर्पण  आत्मा के भीतर तक संवेदनाओं का  धरातल पैदा करता है ' रिश्ता '! रिश्तों का अमरत्व  त्याग , स्नेह व भावना दर्पण  में निहित होता है ! यह  वह  अहसास होते हैं जिनके विभिन्न आयाम होते हैं ! इंसान सामाजिक प्राणी है  और संसार में जीवन यापन करने के लिए रिश्ते उसे आत्मबल देते हैं ! उसके जीवन में प्रत्येक रिश्ते की अनमोल पहचान होती है ! जिन्दगी के प्रारंभिक कड़ी  में माँ बाप के परिवार से प्राप्त रिश्ते उसके लिए अनमोल होते हैं फिर जब वह प्रथम बार घर से बाहर निकलता है तो पारिवारिक परिवेश से बाहर निकलता है!  पारिवारिक  परिवेश से बाहर उसे मित्रों का वह अनूठा संसार मिलता है जिसमें वह बहुत  आनंद ,स्नेह और अटूट विश्वास के बंधन में बंध जाता है ! उसके बाद जीवनसाथी और उससे जुड़े नवीन रिश्तों के अनुपम संसार में वह सुख दुःख  में अपने आस पास रिश्तों का सुंदर संसार देखता है ! रिश्तों की बागडोर तभी मजबूत बनती है जब उसमे श्रधा  ,अटूट प्यार और विश्वास हो ! रिश्ते अपने आलोकिक चमक  तभी प्राप्त करता है जब...
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भूख का भूत...... भूख  का भूत होता है  अक्सर खौफनाक , ये जाने गरीब और शुगर के मरीज , स्वाद और पकवान  का न होता कोई शौक , जो मिले, जैसा मिले मिटा ले अपनी भूख , चुराकर ,छीनकर या धमकाकर इसे है सब छूट ! भूख का भूत बन जाता अक्सर हैवान , समाज के बुराईयों को बढाकर होता यह तृप्त , मानवीय विभिस्ता को बढ़ाता इसका विकृत रूप ,  धर्म और निष्ठा  को खंडित कर मिटती इसकी भूख , जीवन मरण के चक्रव्यूह  में उलझा  कर मिलता इसे सकूं ! भूख का भूत बन जाता कभी बहुत मासूम , ये जाने बच्चा और बूढ़ा इंसान , बैचनी और मायूसी से करते इंतजार, शोर मचाकर ,हक जताकर मिटाता  अपनी भूख , अपनत्व  के इंतजार में  बिलखता है खूब ! भूख का भूत  हो जाता कभी धैर्यवान , ज्ञान की खोज करने से मिले इसे  चैन , रूह को परमात्मा से जोड़ने की बढती ललक , शांत ,गहरा और निश्चल भाव से करता दर्शन , सांसारिक भूख त्यागकर जगाता आलोकिक भूख ! १२/१०/२०१२ 
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अज़ब-गज़ब   आसमां में उड़ते पंछियों की उड़ान , आसमां  में एक साथ  उड़ना इनका ज्ञान , नित्य नवीन तस्वीरों से बढ़ाते आसमां की शान , इनका जोश और एकता है इनकी पहचान ! धरती पर इंसान की उलटी है पहचान , अपने समाज में ही फैलाते भेदभाव की झूठी आन . नित्य नवीन आडम्बरों से रिस्ते धरती माँ के घाव , इनकी ईर्ष्या और  रंजिशें बन गयीं आज इनकी शान !  ११/१०/२०१२ 
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मेरी परछाई  कभी आईने  का धूल सा  , कभी जीवन का फूल सा  , कभी खिलखलाता सा , कभी मुरझाया सा , कभी मस्त पंछियों सा , कभी सुस्त घोंगा सा , कभी प्यारा दुलारा सा , कभी लगता अंगारा सा , कभी बूढा बरगद  सा , कभी नन्हा पौधा सा , कभी बहती सरिता सा , कभी गंभीर समुन्द्र सा , मेरी परछाई मेरी  प्रेरणा सा !१०/१०/२०१२ 
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आयें  दहेज़ लोभियों को परिभाषित करें  द --------- दरिन्दे  व् अभिशाप हैं समाज पर  ऐसे लोग , हे --------- हैवानियत बरसाते हैं बहुओं पर ऐसे लोग , ज ---------जहरीले विकृत  परिवार में दिखेंगे ऐसे लोग , लो --------लोग वर पक्ष के वधु पक्ष से  धन- मान हडपने वाले लोग , भी --------भीषण कुंठित मानसिकता वाले क्रूर व्  रूखे  लोग ! यों -------योजनाबद्ध  तरीके से करते हैं वध बेटियों का ऐसे लोग ! दहेज़ लोभियों को पहचाने और अपनी बेटियों का जीवन बचाएँ !    
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भावना भावना का मोल न समझे कोई , इसके भाव होते सदा अनमोल , जीवन की कठपुतली नही है , यह तो जीवन की मार्गदर्शी है , भावना कोई खिलवाड़ की वस्तु नहीं , इसे मसलकर खो रहा मनुजता मनुष्य , अपने निज स्वार्थ हेतु इस्तेमाल न कर , भावना तो है दैवीय व् ईश्वरीय केंद्र , यह भोले का स्वरुप भी है , तो यह अग्नि सा प्रचंड भी है , लोग सितमगर हैं ज़माने में , मासूम समझ , रौद्कर खूब इतराते हैं , भावना न मांगे पाबंदी न पसंद उसे तिरस्कार , भावना तो है स्वछन्द पंछी, हर डेरे पर उसका बसेरा , भावना से आती भावुकता , आत्मीयता और सहानुभूति , इसके मार्ग के अवरोधक बनते क्रूर ,हिंसक और स्वार्थी , भावना हर व्यक्ति की समान, इसका कभी अपमान न करना !! ३/८ /१२
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नारी तेरी यही कहानी.... सुबह से सांझ की सफाई तक  , चूल्हा ,दफ्तर ,घर आंगन तक , वंश बढ़ाने से पढ़ाने तक , नारी तेरी यही कहानी ! अपने स्वाभिमान को तिलांजली देने तक , दुःख -वेदना में भी मुस्कुराने तक , लट्टू सी रिश्तों की बागडोर निभाने तक , नारी तेरी यही कहानी ! बीमारों की बीमारी से अपनी बीमारी तक , बूढों की सेवा से अपनी पीड़ा तक , तानो व् तिरस्कृत स्वर व् दहेज अग्नि तक , नारी तेरी यही कहानी ! संघर्ष ,अधिकारों व् प्रताड़ना तक , अचल त्रिकाल के प्रतिकार तक , पिछड़ी उद्दंड  मानसिकता के प्रहार तक , नारी तेरी यही कहानी !
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मैं कौन हूँ ? मैं कौन हूँ ? क्या अस्तित्व मेरा ? किस मंजिल की ओर पदापर्ण  किया मैंने ? क्या किसी की करुणा पायी मैंने ? अंतर्मन की शुभ्रा  को क्या पूज पाई मैं ? अपने अस्तित्व पर स्वयम प्रश्न चिन्ह  लगा रही मैं ! मेरे अंतर्मन की पुकार न सुनता कोई , तेरे  हृदय की चीत्कार न सुनता कोई , प्रतिभा के समुंद्र  साक्षरों की पुकार न सुने कोई , असहाय जीवन की विडम्बनाओ को न समझे कोई , अंतर्मन को आलोकित करने का प्रयास न करता कोई ! हाँ , उठ , तुझे स्वयं बदलना होगा , वक्त के उफनते थपेड़ों को सहना होगा , मुरादों के झंझावतों को तोडना होगा , सैकड़ों नागफनियों को उगाना होगा , पूर्णता के आवरण को छोड़ना होगा , संभावनाओं की आहट पहचानना होगा ! मैं कौन हूँ ?  कलुषित समाज की प्रताड़ित नारी ,अस्तित्व की संभावना तलाशती नारी !
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अटूट संघर्ष महकते उपवन में आज  खिली हैं कलियाँ अनेक , मुस्कुराती हुयी , अम्बर को निहारते हुए, लगती कुछ खोयी खोयी , काश की वे भी अम्बर होती , अनेक पंछी उन तक पहुँचने  के प्रयास में होड़  लगाते   और वे , खिलखलाकर  हँसती, भाग्य की विडम्बना , पवन के झोंके पटक देते  उन्हें हकीक़त के कडवे धरातल पर , जहाँ कांटे कंकड़ ,बीहड़ जंगल , और उन्हें उसी में खोना है , नव कलियाँ वही खिलेंगी , फिर वही स्वप्न व् हकीक़त के बीच , अटूट संघर्ष ,नारी जीवन का निष्कर्ष !
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बादल  `बादल हैं आँसू धरती माँ  के आँखों  के, कुछ पलों में ही देती सबक इंसान को , गर्मियों में निरंतर बाट जोहते जिन बादलों की , वही बनती विपदा जब फटता बादल इंसान पर , चारों  तरफ हैं पानी पानी  फिर भी बेहाल इंसान , घर बह गए ,जीवन मिट गये ,त्रासदी का माहौल , बादल हैं आँसू प्रकृति के ,ले रही प्रतिशोध खिलवाड़ की !
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फूलों का इंतकाम  जर्रा  जर्रा फूलों का महकता संसार , लाती है जीवन में बसंती बहार , रंग बिरंगी तितलियों का उमंग रस भंडार , मधु की चिर  निरंतर बहती धार ! मानव का कलुषित ईर्ष्यालु संसार  फूलों को तोलने व् तोड़ने  का करे व्यापार , वसंत आने से पहले पतझड़ लाने  तो तैयार , मधुलिका को ले जाता मधुशाला की ओर !  जीवन की सुनिश्चित सी डगर , फूलों के संग काँटों का संसार , सतरंगी दुनिया के पीछे लहू की पुकार , जाग रही हैं कलियाँ लेने फूलों का इंतकाम ! नारी फूल भी हैं तो शूल भी है .....यह समझना होगा सभी  नारियों    को कब तक अत्याचार सहोगी ? और कब तक समाज की  कुरीतियाँ  उसे रोने और आत्महत्या की ओर प्रेरित  करेगा ......? 
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यादें तुझसे बिछड़कर फिर वही रात दिन , छिन गया ...... तू  था मेरे दिल का सकून  हर बढ़ते तूफ़ान की न कोई मंजिल , जिसका घर था केवल हमारा दिल , वक्त के हाथों कितने मजबूर , आईने में ढूंढे तेरी तस्वीर , चुभता हर पल ..... वह श्याह सवेरा , तेरा रूठ कर चले जाना ... खत्म न हुयी कभी बरसात हर खुशियों में गमगीन शहर , सपनो में केवल तेरा बसेरा , क्यों मेरी चाहत बना खुदा की चाहत , मुझे रुलाकर मिली उसे जो राहत , अपनों की तकदीर , अपनों की हालत , कोई रूह को न दे सकूँ , देता बस जैसे खैरात , जितने भी मिले , दिए सभी ने गम की बरसात , जीवन के आखिरी पड़ाव में भी ,,, तेरा गम सताता , दुनियावी भीड़ में भी कोई एक पल न देता राहत , बुझे अरमान , सिसकता दिल , भावनाओं को कोई न आंकता , उफ़ ..... यह जिन्दगी तन्हाईयों में जीना कोई समझ नही सकता , खता खुदा की समझें अपनी तकदीर की तदबीर दुनियावी रिश्तों से ... न कोई सरोकार जब तुमने छोड़ दिया साथ , कितने ही वसंत आए पर तुझ बिन ............ सब पतझड़ सा लगता , एक कसक सी रह गयी ..... जीवन में ,,, न तेरी इसमें कोई खता...
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मेरी संगी सखी  मेरी खुशियों में मेरे आंसू है संगी , मेरी दीवानगी में  मेरी गमहीनियाँ हैं संगी , मेरी पलकों के नजरों में  तेरे नजराने हैं संगी , मेरी जिन्दगी में  मेरी रुक्षत  रूह हैं संगी , मेरे ख्यालातों में  मेरे हमराज संगी , मेरी मुहब्बत में  मेरे ख्वाब हैं संगी , मेरी दहशत में  मेरी खुदखुसी है संगी , मेरी तम्मना में  मेरी तन्हाईयाँ हैं संगी !
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क्यूँ   न  करती  वजूद  की तलाश  क्यूँ इन आँखों में गम के आंसू आये हैं , क्यूँ बिखर गए सपने और सपने पथराये हैं , क्यूँ तेरे मन की कोमलता बन गयी पाषाण , क्यूँ तेरे शब्द ह्रदय भेदन कर रहे बन कृपाण , क्यूँ दर्द में डूबे रहना बन गया बंधन , क्यूँ विरह वेदना में    मिटे   अमूल्य जीवन , क्यूँ कलंकित शब्दों को तुम अपना ढाल बनाते . क्यूँ  बेगैरत  लोगों की खातिर अपना सकूं जलाते , क्यूँ गुमनाम  अंधेरों में हो खुशियाँ तलाशते , क्यूँ स्वयं को  गरीब     समझकर सदैव खुद को धिक्कारते , क्यूँ ईमान ,प्यार ,वफ़ा के पीछे दीवानगी , क्यूँ तन्हाईयों में रहकर  आसहीन जीवन जीना   , , क्यूँ  जात पात  पर हर पल उलझो तुम  क्यूँ  जीवन को त्रिश्नाओं  से सरोबर करते तुम , क्यूँ न विश्व पटल पर  अपनी छाप छोड़ते तुम , क्यूँ  लड़ाई झगड़ों में उलझ कर अमूल्य पल खोते तुम !
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हमारे बुजुर्ग  जीवन के कर्तव्य पथ को खूब निभाते माँ पिता , माँ होती अगर  धरती तो है जग में  विराट आसमां  पिता, माँ निस दिन अपना सुख  चैन खोकर बच्चों को सुख  देती , पिता अपने खून पसीने से बच्चो की अभिलाषाएं पूरा करते,  शैशवस्था से यौवन  तक उनका जीवन त्याग में बीतता !   पंख निकलते  बच्चे अपना खुद का आशियाँ बना लेते,  जीवनभर  जिस आस से उन्हें प्रवीण बनाया , आज वही माँ बाप बच्चो को खुद पर भारी पड़ते , माँ यदि अपंग नही तो बनती तुम्हारी नौकरानी , पिता यदि पेन्सन  रहित तो बनते केवल ताड़न के अधिकारी ! जिन माँ पिता की ऊँगली  पकड चलना ,बोलना और कमाना सीखा,  उनके बुढ़ापे में तुम नही वही  कार्य करते व् अपना फ़र्ज़ निभाते,  जीवन भर तुम्हारी ख़ुशी की खातिर जिन्होंने नींद भूख त्यागी,  आज उन्ही से तुम दो रोटी और चंद प्यार के बोल ठुकराते , जब उन्हें तुम्हारा सहारा चाहिए तब उनके अकेला छोड़ दूर कहीं नीड़ बसाते !   वक़्त के आखिरी पड़ाव में कितने मजबूर से वे लगते , जिन ...