मन 

मन बहुत कोमल होता है और इसको वश में रखना कठोर व्रत  के समान होता है ! यदि मन अंतर्द्वंद  का शिकार होता है  तो प्राणी   का मस्तिष्क असंतुलित हो जाता है! जिन मनुष्य का मन शीघ्र  विचलित हो जाता है उसके परिवार में अनुशाषनहीनता  , अवव्यवस्था  , दुराचार जैसे गुण  पनपने लगते हैं ! मनोनिग्रह   अत्यंत महत्वपूर्ण धरोहर है ! इसके बिना न तो आत्मिक संतोष और न ही समृद्धि  प्राप्त होती है ! प्रत्येक  मनुष्य का मन भिन्न भिन्न आनंद में संतोष  प्राप्त करता है ! भौतिक आनंद जिसमें  भौतिक सुखों  की  वृद्धि  के लिए हर पल  अग्रसर रहता है  और फलांक्षा  में मन  में संतोष अथवा तृष्णा धारण कर  लेता है किन्तु जिस मन को आलौकिक  आनद  को  प्राप्त  करना होता है व् ब्रह्म  ज्ञान  की खोज  में  तत्पर रहता है वह अपने को  ईश्वर के हवाले  कर हरेक परिस्तिथि में संतोष और आनद प्राप्त करता है ! मन  को तीन शक्तियाँ अपने नियंत्रण में रखती है -सतोगुण , रजोगुण  और तमोगुण ! प्रत्येक व्यक्ति के मन में इन तीनो शक्तियों  का स्वरुप विद्यमान रहता है ! बस  अनुपात का फर्क ही एक मनुष्य को  दूसरे से अलग करता है ! 
 मानव मन में अस्तिरथा  की स्तिथि का कारण भी यही है ! इस मन के दो भाव हैं - चेतन और अवचेतन ! अवचेतन मन को अशुभ नही कहना चाहिए !  अपितु यह हमारे अतीत के कर्मो का भंडारण   है  जिससे सदैव सीख मिलती है ! चेतन मन  अहंकारी और भावुक होता है किंतु  अवचेतन मन  पर  करुणा  और धैर्य का प्रभाव रहता है  !  मन में नित्य दिन  दोनों भावों का समावेश  होता है ! जिसमें  वक्त और परिस्तिथि के हिसाब से उसमें घटत और बढ़त  होती है !
चेतन  मन को अवचेतन मन की ओर ले जाना कठिन है इसीलिए उसकी प्राप्ति  के लिए सत्संग अत्यंत आवश्यक  है , जिसका गुण एकाग्रता है ! यह मन तब भटकता है  जब हम स्वयं  की खोज नही करते ! हम निरर्थक  विवादों  में  दिलचस्पी  और  दूसरों  के  कार्य  कलापों  की  जानकारी  एकत्र  करने में उत्सुकता रखते हैं , अपने दोषों को भूलकर  , दूसरों के दोषों में अपना अमूल्य समय खराब करते हैं  ,तो मन चंचल होकर भटकता  रहेगा !
मनोनिग्रह   कोई सरल कार्य नही ! इसके लिए आत्मविश्वाश  और दृढ निश्चय अत्यंत आवश्यक है ! सबसे पहले निर्मल और पवित्रता युक्त शुद्ध आचरण  को जीवनशैली  बनाना होगा ! मन की इन अशुद्धियों को एक एक करके तोडना होगा ! घृणा , क्रोध , भय , ईर्ष्या , लोभ  और पराकर्षण का त्याग  आवश्यक हैं ! यह  तभी संभव है जब हम सतोगुण को बढ़ने वाली क्रिया और सात्विक भोजन पर ध्यान दें ! सारा  ध्येय  सैट , चित ,आनंद की प्राप्ति  होनी चाहिए ! जिन्हें अपने मन को सतोगुण की ओर  मार्गी  बनाना है  , उन्हें  दुर्भावनाओं , शिकायतों  और छोटी सोच से बचना चाहिए ! बोझिल मन को इस अवस्था की प्राप्ति मुश्किल से होती है ! 
हमेशा  सृजनशीलता की ओर तत्पर रहना चाहिए  ! आत्मनिरीक्षण  द्वारा प्रत्येक दिवस के घटित कार्यकलापों पर आत्ममंथन  अत्यंत आवश्यक है ! मन को सदैव अंत : कर्ण  में तीक्ष्ण  दृष्टी  से देखना चाहिए और उनमें उत्पन्न विचारों को शोध मनुष्य द्वारा किया जाना अनिवारिय है  की  वह कुमार्गी या सुमार्गी बन रहा है !
अन्तत : मन को नियंत्रित कर सुखी जीवन यापन करना मनुष्य का परम धर्म होना चाहिए जो उसे शुद्ध आचरण और संतोष की अविरल धारा की ओर अग्रसर करती है !

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