दरख्त की व्यथा
तुम्हारी हर शाख पर
कई चुनरी , धागे बांधकर ,
मनौतियों का भार लादा गया ,
दुखियारों का मनमीत बन ,
तूने बाँहें पसार सबका साथ दिया
बना तू सुख दुःख का संबल
आस्था का बंधन
एकता का परिचायक
जहाँ लगे दुखों की कतार
पीपल "औ " बरगद
तेरे रिसते घाव
अतृप्त आत्मा
बाट जोहती रही
सदियों से अपलक
अपने कर्णधार का
रोक सके ....
टोक सके ....
इस अन्धविश्वास को
कि मैं मुक्त करता
लोगों के संताप को ,
आह्ह .............
और मेरा संताप
युगों से पराधीन
अंतहीन .....
अस्तित्व की तलाश
वनस्पति जगत
की स्वछंदता
से वंचित
बंधा हूँ
प्रकृति की उर्जा
कैसे पहुंचे
चुनरियों के नीचे
वनदेवी मेरी माँ
के आँचल से छीनकर
मन्दिरों के प्रांगण में
लाकर बाँध दिया
मुझे उद्धारक मान
और तुम्हारे पापों
का परिणाम भुगत रहा
अपने जन्म को कोस रहा
नहीं बनना .......
मुझे पूजनीय वृक्ष
चाहता ममत्व बस .....
जो मानव ने दिया नही
बंधन बाँधने खोलने
के सिलसिले में
मेरे इर्दगिर्द
चक्कर काटने में
क्या मेरे अंतर्मन में
झाँका कभी
टटोला कभी
कि मैं निष्प्राण नहीं ,
संवेदना रहित नही
चाहता प्यार का
सुंदर संसार
आशा "औ " विश्वाश
का समागम
रहे बरकरार
बांधो प्रेम का
बंधन आपस में
अच्छे कर्मो के
आधार से
काटो अपने पापों को
ईश्वर है सबका
सबसे बड़ा संबल
पूजो उसे हर
मानव 'औ " जीव में
चुनरी है ...
नारी श्रृंगार
सम्मान की सदा
हकदार .....
मेरी हर शाख
तुमे देगी आशीष
गर अपना लो
मेरी हर सीख !!

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