फेसबुक व् रिश्ते फेसबुक पर रिश्तों की महिमा बड़ी विचित्र कहीं पर जन्म जन्मान्तर के रिश्ते हैं बनते अटूट दोस्ती के मिशाल भी यहीं पर बनते सुख दुःख साँझा करने का अद्भुत मंच यहीं हैं बनते पर यहीं बेरहम लोग रिश्तों की कद्र नहीं जानते एक दूसरे की भावनावों को नहीं पहचानते लोग अपनों के साथ ही विश्वाशघात किये जाते हैं ये दुनिया है घोटालों की दुनिया ,दिल यहीं तोड़े जाते हैं दोस्तों की बातें भरी महफिलों में उड़ाई और जग हसाई की जाती है इस मंच पर सभी मोखोटा लिए बैठे हैं ,और दूसरों का परिहास किये जाते हैं इस सुंदर मेल मिलाप के जगत को क्यूँ हो प्रदूषित करते अपनी चंद लम्हों की ख़ुशी की खातिर दूसरों का हृदय भेदन करते मान बड़ाई सभी को प्यारी ,सबका स्वाभिमान का ध्यान क्यूँ नहीं रखते अपने प्रशसको व् मित्रों के शब्दों को प्रोत्साहित नहीं कर सकते तो हतोसाहित भी क्यूँ हो करते लड़कि...
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Showing posts from August, 2012
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इंसानियत इन्तजार इन आँखों से अब जुदा हुआ शायद कोई टूटा तारा कहीं दफ़न हुआ खुद अपनी बस्ती जलाकर भी दीदार न हुआ जिसके लिए ताउम्र जगे वही शायद अब रुक्सत हुआ भीड़ से भरी महफिलों से शायद वह तन्हा हुआ शब्दों के पथराव से शायद वह घायल हुआ वक्त के अंधियारे गलियारे में शायद वह गुम हुआ हुकुमरानो की बड़ी दुनिया में वह नितांत एकांकी हुआ बचपन की कसक ,यौवन की ग्लानी में वह खाक हुआ चिंतित मन में अवसादों का सैलाब गहरा हुआ रात के भयावह सायों में उसका अक्ष धूमिल हुआ समय के कुचक्र में वह पूरी तरह उलझा हुआ मायूसी के आलम में वह खुशनुमा न हुआ जीने की उमंग से मानो वह बेज़ार हुआ कोमल लफ्जो की भटक में वह नीलाम हुआ कुदरत के सितम से टूट कर वह खुदी हुआ कुछ कर गुजरने की चाह में वह मदहोश हुआ दीपक सा रौशन उसका दिन फना हुआ प्रकृति के ख...
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देखो धरा रो रही है ... देखो धरा रो रही है ....... चारो ओर फैलता देख वैर -वैमनस्य , नैतिकता रौंदी जा रही अनैतिकता के हाथों देखो धरा रो रही है ....... अवचेतन होती मूल्य धारा से , ममता छिन रही बर्बता के हाथों ! देखो धरा रो रही है ....... मूर्छित हो रही वज्र कठोर धर्मनीति अब , कुलाचे मार रहे आतंकी निर्ममता के हाथों , देखो धरा रो रही है ....... हिंसक बनती उसकी रचना , निष्क्रिय होता मानव आत्मबल शोषण के हाथों ! देखो धरा रो रही है ....... जाती पाती की विभस्तथा बढ़ रही , बन रही महाकाल रंजिशों के हाथों ! देखो धरा रो रही है ....... कास्तकारों के उजड़े बंजर भूमि , बन रही बली बिजली कटौती के हाथों ! देखो धरा रो रही है ....... धर्म क्षेत्रवाद से बंट रहा रास्ट्र , स्वर्ग सी इस धरा को रौंद रहे आन्दोलनों के हाथो ! देखो धरा रो रही है ....... मोह ,माया ,मृगतृष्णा से शुब्ध सब जन , कुचल रही मानवता बढती महंगाई के हाथों ! देखो धरा रो रही है ....... बिसर चुके हैं परतंत्र की बेडी, स्वतंत्रता खो रहे हैं ,विदेशी पूंजीपत्ति के हाथों ! देखो धरा रो रही है ....... देखो धरा रो रही है ........
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रेत के कण रेत के कणों में छिपा जीवन का सार , पल पल जीवन के घटते दिनों का आधार! भोर की बेला में स्वर्णिम इसकी किरण , जैसे फैलती शिशु के मुख का भोली सी मुस्कान ! सुबह -सुबह नदी तीरे पंछियों का रेत पर देख कलरव , याद आते हैं बचपन के वे खिलखिलाते पल ! सूर्य की गर्मी से तपते इसके अंश , जैसे जीवन में युवावस्था की बढती उमंग ! दिन में इन्ही रेत के कणों का तपकर सुर्ख होना , प्रोढ़ावस्था में ज्ञान के सरोवर में सबका जीवन ! चाँदनी की ठंडक से मिलती इनमे शीतलता , जैसे जीवन की सांझ में बढ़ते बचपन को छूने का सकून ! मुट्ठी खुलने पर हाथो से इनका खिसकना , यूँ ही होता जीवन का मृत्यु से सामना ! बहुत समय से अजमा रही जैसे प्रकृति , रेत से अडिग धूप - छाँव की आसक्ति !
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जीवनदर्शन ईश्वर को अलभ्य जान ,जीवन को यूँ नष्ट न करो , जीवन चक्र के अनमोल पल ,परहित में न्योछावर करो ! वाणी मिसरी सी हो ,कर्म चींटियों सा तुम निसदिन करो , इस परिवर्तनशील जगत में न किसी के संग दुर्व्यवहार करो ! स्पर्श ईश्वर का करना हो तो सम्पूर्ण उसका ध्यान करो , मृदुल भाव से शीश झुककर ,इस जग में ऊँचा नाम करो ! प्रतिदिन की भागदौड़ में एक प्रहर उसको तुम याद करो , अपने भोजन की एक थाली ,दूसरों के हित में त्याग करो ! अपने ज्ञान के दीपक से दूसरों का जीवन तुम रोशन करो , व्यसनियों का बहिष्कार न कर उनका जीवन उन्नत करो ! असाध्य रोगों से लड़ रहे जीवन की तुम भरपूर सेवा करो , अपने आत्मिक उथान की धारा निसदिन तुम प्रबल करो !
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अपमान इस युग में नारी झेल रही अपमान हर कहीं , घर आँगन सरे बाजार नीलाम हो रही , कलयुगी संबंधों की मार पड़ी सभी रिश्तों पर नारी आँसू को देख निर्लज संसार खूब हँस रहा , संसार में नारी देखती पुरुषों में प्रेम सरिता पिता ,पति ,पुत्र ,भाई व् मित्र की तस्वीर में , किन्तु कलयुगी पुरुष की बढती विसंगति में हर रिश्ते उसे बस आँसू समन्दर भर देते रहे , पिता समझता उसे बोझ अपनी कमाई पर , पति की वह तो जीवन कठपुतली सी , पुत्र उसे समझता बोझ जीवन भर का , भाई हर पल करता खिलवाड़ उसकी भावनाओं का , मित्रता की चाह में वह जिस ओर बढ़ी , पुरुष मानसिकता के व्यभ्याचारी मिले , हर क्षेत्र में ,हर डगर में मिला उसे बस अपमान व् अन्याय का उपहार , इस धरा पर नारी न जाने कबसे ... हो रही कलंकित अपनों के हाथों , कहीं आत्महत्या तो कहीं ख़ामोशी को लगा गले जूझ रही समाज को हर देश प्रदेश मे...
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जागरण जागरण बनाम दिखावा का जोर हर कहीं , ईश्वर की पुकार होती गली गली जागरण बनाम शोरशराबा का शौक हर कहीं बहरा करने का ठेका लेते गली गली जागरण बनाम आडम्बर का बढता रिवाज हर कहीं असहाय को ठुकराकर मौज मानते गली गली जागरण बनाम अध्यात्मवाद का कुचलन बढ़ रहा हर कही मिथ्या को अपनाकर विवेक खोते गली गली जागरण बनाम निन्द्राहर्ण का बढ़ता फैशन पीड़ितों ,शिशुओं और बुजुर्गों को प्रताड़ित करते गली गली जागरण बनाम धार्मिक विज्ञापन का दौर हर कहीं अंत :करण को झुठलाकर,ज्ञानी बन रहे सभी गली गली , जागरण बनाम ध्वनि प्रदूषण का फैलता आचरण हर कहीं , रौद रहे मनुजता ,ईश्वर को मानाने में गली गली !!
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स्याह बचपन संघर्षों में गुजर रहा है स्याह सा बचपन , दिन भर की कड़ी मेहनत में ढूंढता अपनापन , घर का कर्ज मिटाने फर्ज़ बन आया दूसरे आँगन , पालनहार की तिजोरी भरने हेतु पिटता हर क्षण , झूठन भर मिले न मिले नही जाने इसका मन , सख्त जीवन को झेल रहा जिसका तन , लताड़ व् मार में गुजर जाता जिसका सारा दिन , कूड़े की ढेर मैं बैठा सिसक रहा देखो स्याह बचपन !
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विश्वास वह आया ओस की बूँद सा , सूर्य की किरणों में चमकता मोती सा , गूंगी जिह्वा में स्वरलहरी सा , हर पतझड़ में बरखा की फुहार सा , चंचल मन में विराट समुद्र सा ! वह आया फूलों में मकरंद बन , काली अमावस में पूर्णिमा सा बन , कंटक से भरे रास्तों में कालीन सा बन , भरी दुनिया में सितार सा बन तिरस्कृत जीवन में उपहार सा बन ! वह आया क्रोध को शांत करने को , धरती में फैली नफरत मिटाने को , आडंबर से फैली अज्ञानता हटाने को सुप्त होती मनुजता जगाने को , कुरीतियों रहित समाज बसाने को !!
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कैसे ...न ..जाने कैसे दामन के काँटों और आँखों के आँसू दिखाऊँ कैसे , जीवन भर जो मिला उन्हें छिपाऊँ कैसे , पल भर की ख़ुशी और फिर वही पल सँभालूँ कैसे , हर दर्द को तकदीर बनाकर समेटूं कैसे , वक़्त के बेहरहम चोट को भुला दूँ कैसे , दूसरों की ख़ुशी मैं अपनी लाचारी का गम मिटा दूं कैसे , तकदीर से निस दिन बढती उलझन सुलझाऊं कैसे , शब्दों में छिपे भाव व् भाव में छिपे शब्द पढाऊँ कैसे , मेरे ख्वाब ,मेरी तन्हाईयाँ और तेरी रुसवाई निभाऊं कैसे , दर्द का बढ़ता सैलाब और उफनती ज्वाला बुझाऊँ कैसे , मेरा तेरा की बहस में जीवन बिताऊँ कैसे !
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तिरंगे की लाचारी १५ अगस्त को मनाई जाती तिरंगे की आजादी , पर नहीं दिखती किसी को क्या इसकी लाचारी ? दिनोदिन नहीं बढ़ रही क्या इसकी बेबसी ? भारत माँ की बेटियों की लुट रही अस्मत गली -गली , भूख ,दहेज़ ,जातिवाद ,धर्मवाद भ्रूणहत्या ,हिंसा इसे रुला रही , फिर भी देखिये हम सजा रहे झाँकी आजादी की , अनाचार, दुराचार ,व्यभयाचार व् भ्रस्टाचार की बढ़ रही आँधी , कला में नग्नता और फूहड़ता परोस रहे पर भविष्य की चिंता नहीं , भेदभाव में देखो गरीबों के अरमान व् प्रतिभा कैसे बिक रही , जीवन उथान के हर मोर्चे पर कैंसर बन रही रिश्वतखोरी , शहीदों की क़ुरबानी जैसे बन चुकी देश की लाचारी , तिरंगे का क्या सम्मान जब फ़हराने तक का ज्ञान नहीं , रौंद रहे इसके मान सम्मान को ,पैरों की समझकर जूती , राजनीती तो जैसे बन चुकी है तिरंगे की फाँसी , बेच रहे निज स्वार्थ में तिरंगे की अनमोल ख़ुशी , भूल चुके पराधीनता की वो खौफनाक व् दर्दनाक कहानी , और देखो क्या धूम से मनायेंगे सभी तिरंगे की आज़ादी !! १४ /८/२०१२