इंसानियत 

इन्तजार इन आँखों से अब जुदा हुआ 
शायद कोई टूटा तारा कहीं दफ़न हुआ 
खुद अपनी बस्ती  जलाकर भी दीदार न हुआ 
जिसके लिए ताउम्र जगे वही  शायद अब रुक्सत  हुआ 

भीड़ से भरी महफिलों से शायद वह  तन्हा  हुआ 
शब्दों के पथराव से शायद  वह  घायल हुआ 
वक्त  के  अंधियारे गलियारे में शायद वह गुम हुआ 
हुकुमरानो की बड़ी दुनिया में वह नितांत एकांकी  हुआ 

बचपन  की कसक ,यौवन  की ग्लानी में वह खाक  हुआ 
चिंतित मन में अवसादों का सैलाब गहरा हुआ 
रात के भयावह  सायों में उसका अक्ष  धूमिल हुआ 
समय के कुचक्र में  वह  पूरी तरह उलझा हुआ 

मायूसी के आलम में वह खुशनुमा न हुआ 
जीने की उमंग से मानो वह बेज़ार हुआ 
कोमल लफ्जो की भटक में वह नीलाम हुआ 
कुदरत के सितम से टूट  कर  वह खुदी हुआ 

कुछ  कर गुजरने की चाह में वह मदहोश  हुआ 
दीपक सा रौशन उसका दिन फना हुआ 
प्रकृति के खिलवाड़ से उसका जीवन तन्हा हुआ 
फिर  भी इंसानियत घुट्ती रही और लुटेरों का बाज़ार गर्म हुआ 
...३०/८/१२ 

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