आखिर क्यों ?

हे सर्वत्र प्रेम सरिता बहाने वाले श्री लयकर्ता,
क्यों तेरी ही बनायीं इस दुनिया में घृणा ,द्वेष व् अराजकता फ़ैल रही है ?
क्यों तेरे ही बनाये किरदार एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे हैं ?
क्यों तेरा गुणगान गाने वालों को रौंदा जा रहा ?
क्यों तेरी आस्था के स्थान पर नास्तिक लोगों को पूजा जा रहा ?
क्यों कहीं व्यभ्याचार व् कहीं विभस्त चीखें गूँज रही ?
क्यों इमानदारी परेशान तो बईमानी हंस रही है ?
क्यों तो हे त्रिकाल अभी तक आँखे मूंदे तुम कुछ सोच रहे ?
क्यों नहीं हे लयकर्ता ,सर्वत्र व्याप्त इस असंतोष हेतु अपनी त्रिकाल दृष्टी अपना रहे ?

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