पर्यावरण प्रदूषण का फैलता विकराल साम्राज्य, क्या नहीं पर्यावरण को डस रहा ? धुँआ, जल, खाद्य प्रदार्थ, जिसकी भेंट चढ़ रहा I पालीथिन का फैलता विकराल साम्राज्य, क्या नहीं पर्यावरण को डस रहा ? बढ़ते इसके दुरूपयोग से किसका स्वस्थ्य भेंट चढ़ रहा I वन्नोंमूलन का फैलता विकराल साम्राज्य, क्या नहीं पर्यावरण को डस रहा ? प्राकृतिक असंतुलन का जिम्मेदार धरा विनाश का कारण बन रहा I खनन का फैलता विकराल साम्राज्य , क्या नहीं पर्यावरण को डस रहा ? प्राकृतिक आपदाएं व् विनाश का कारण बन रहा I मिलावट का फैलता साम्राज्य , क्या नहीं पर्यावरण को डस रहा ? जीवन रुपी अनमोल सम्पति जिसके भेंट चढ़ रही I आयें मनन करें व् शपथ लें , क्या नहीं पर्यावरण हमसे संभल रहा ? प्रदुषण ,पालीथिन, वन्नोंमूलन ,खनन व् मिलावट को अब हम सब मिलकर त्यागें !!
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Showing posts from May, 2012
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आस नन्ही सी आस है जगी, इस धरा के उस छोर है बसी, पंछी बलखाती सी उडती, पेड़ों के पीछे झुरमुट से सुन बंसी, वसंत की महकती गलियों सी ख़ुशी I नन्ही सी आस है बंधी, अपने अस्तित्व की तलाश नयी, निखरते व्यक्तित्व की चांदनी नयी, पुलकित आर्जूवों की झंकार नयी, बोझिल चेहरों की मुस्कान नयी II नन्ही सी आस है बनी, हथेलियों की चंद लकीरों सी नयी, उम्मीद की नवीन किरणों से नयी, कल्पनाओ से परे उस ओर कहीं, पलकों में मदमाते सपनो से कहीं I नन्ही सी आस है उठी, कोमल करुणा की मुस्कान नयी, जीवन समर्पण के भाव नये, अपंग बचपन में अभीरूचि नयी, स्वप्नों के हकीकत बनती ख़ुशी I नन्ही सी आस बनी ख़ुशी II
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तेरा चेहरा मेरी आँसू भी तेरा यह चेहरा मेरी खुशी भी तेरा यह चेहरा ज्योतिर्पुंज भी तेरा यह चेहरा उपवन की हरियाली भी तेरा यह चेहरा नदियों की स्वरांजली भी तेरा यह चेहरा उदासी में खुशहाली भी तेरा यह चेहरा भीड़ में गुमसुम सी गली तेरा यह चेहरा मुझे समझने वाला भी तेरा यह चेहरा मेरे अन्धयारे का उज्यारा तेरा यह चेहरा बोझिल सांसों की नरमी में तेरा यह चेहरा मेरे गीतों में भी तेरा यह चेहरा अश्रुधार में भी तेरा यह चेहरा हौसलों की उड़ान बढ़ाता तेरा यह चेहरा साईनाथ की सौगात है तेरा यह चेहरा !!
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कहते हैं ..गुजरा जमाना सही था ! कहते हैं पुराना जीवन सही था , गरीब जून भर रोटी खाता था , कमरकस मेहनत पर मुस्कुराता था , पर अब महंगाई हँसती ,गरीबी रोती है ! कहते हैं गुजरा जमाना अच्छा था , पत्राचार दिलों में राज करती थी अब इन्टरनेटई दुनिया मे सिमटे सभी , हर व्यक्ति इस भंवर में खो सा गया कहीं ! कहते पुराना जमाना सही था , तांगा ,बैलगाड़ी ,साईकिल इंधन रहित चलती थी , अब इंधनयुक्त वाहन बीमारी बन चली , हालातों के समंदर में कमरतोड़ महंगाई की आपाधापी ! कहते हैं पुराना वक़्त सही था , घर परिवेश में आदर ,प्यार ,मान बड़ाई आबाद थे , संस्कारों के दुर्लभ मोती जाने कब बिखर गए , शेष बची कशमकश भरी तनावग्रस्त जिन्दगी है ! कहते हैं पुराना समय ठीक था !
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पानी का मोल प्यासा ही समझे ! पानी का कोई रंग नहीं , को भेद नहीं ,यह तो सृष्ठी के समस्त जीवों के लिए प्रकृति की अनमोल वरदान है !इसके आगे कोई अमीर नहीं ,कोई गरीब नहीं ! इसकी कमी से प्राणों के लाले पड जाते है ! किन्तु इंसानियत की सबसे भी विडम्बना ........पानी को व्यर्थ बहा देगे किन्तु किसी प्यासे को पानी की एक गिलास पिलाने में बहुत कस्ट आता है !प्यासे पथिको की चिंता तो है नहीं ,तो अन्य जीव तो क्या करें !आज हम में से कितने लोग दूसरों के लिए जीते हैं ! कहाँ गए अब पिऔउ या धर्मार्थ जल ! अब तो जल क्या ईमान बिकता है !सरकार द्वारा शहरों में जल आपूर्ति के साधन तो ठीक किन्तु हमारा अपना योगदान कहाँ गया ! वे लोग जिन्हें प्यासे की प्यास का अर्थ मालूम है और इस दिशा में कार्यरत हैं ,उन स्वयंसेवियों को कोटि -२ नमन !
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कुरीतियाँ इस धरा को यदि ध्यान से समझें तो यह की वस्तुत: सारी सृष्टी की आधारभूत शक्ति नारी है किन्तु उसने सदियों से ज न्मदात्री होने के साथ - साथ यमराज का किरदार भी बखूबी निभाया है व् आज भी इस ओर प्रेरित है !यदि हम नारी के अन्य शब्द का विश्लेषण करें "औरत " तो पाएंगे उससे जुड़े तो भावपूर्ण शब्द -और ,रत ,अर्थात "अधिक इच्छा ",इसके विपरीत पुरुष का भाव पुरुषार्थ ,सृष्टी की रचना का उद्देश्य इच्छा से अधिक पुरुषार्थ हमारे जीवन का उद्देश्य होना चाहिए ! किन्तु नारी इस मार्ग में सर्वाधिक अवरोधक बन कर खडी है ! यह वह जीव है जिसकी तृष्णा से समस्त जगत विशुब्ध है !समाज में व्याप्त जितनी भी कुरीतियाँ हैं उनमें औरत की भूमिका अग्रणीय है !दया की सागर व् देवितुल्य स्थान पाने वाली इस जीव की भूमिका आज के सन्दर्भ में घर ,परिवार व् समाज कल्याण में न होकर विघटन की ओर है !भ्रूण हत्या ,कन्या -बहु प्रतार्ण ,दहेज़ हत्या ,लिंग भेद व् अन्य कुरीतियों को बढ़ावा देने में एक औरत ही दूसरी औरत की दुश्मन बनी बैठी है ,विरले अलग विचारों वाली औरतों के मार्ग अवरोधक और कोई नहीं स्वयं औरत ही तो है ! जब तक ...
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मजदूर की पीड इस बढती महंगाई में , न ठण्ड की बयार सताती है , न जेठ की तीक्ष्ण धूप जलाती है , न वसंत का मधुर कलरव बुलाती है , न पतझड़ का रेगिस्तान रुलाता है ! संसार के समुन्द्र में , चट्टान सा मेरा जीवन , वीरान घरोंदों की चौखट पर , महंगाई की मार सहता मेरा बचपन , रोटी को मोहताज मेरी झोपड़ी , सडको पर पलता यौवन ! महलों के सुकुमारों की ख़ुशी , झोपड़ी के कुमारों की पीड़ा , जिन हथेलियों से जीवन सींचता , उन्ही का दामन छिन्न =भिन्न होता , तुम्हारे सुख व् हमारे दुःख न बढ़ते , बस तुम तो यादो का झरोखा चाहते ! काश ! तुम हमारी बैशाखी बनते , हमारे जीवन में भी बहार लाते, दो घडी हम भी हँस -जी लेते , यूँ खून के घूंट पी चुप न रहते , अरमानो के कफ़न यूँ ही न दफनाते !! पूर्व प्रकाशित ,सर्वाधिकार सुरक्षित ,२००४ !
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पूर्व प्रकाशित एक और रचना आपके समक्ष ईर्ष्या जब दुनिया फूलों के बीच है खिलती , दर्द का रिश्ता बन मैं हूँ उभर आती , निर्झर बहते स्नेह धारा में हूँ ज्वालामुखी सी , तेरे भीतर से दहकती यह मेरी ज्वाला सी , हर कदमों पर काँटे बन जो उभर आती ! बढती तेरी संवेदनाओं की मैं दर्पण सी , तेरी टीस बन जाती मेरी टीस सी , तुम्हारी दुर्दशा मेरी सकून बन जाती , अपने इस ईर्ष्यालु संसार में मुस्कुराती , पल पल तड़पती रूहें देख मैं इठलाती ! तेरे मन का लहू,मेरी प्यास बुझाती, तेरा संताप ,मेरे आभामंडल बन जाती , तेरी चिंता मेरी ख़ुशी बन जाती, जो तू न मुझे बुलाती ,तो कैसे तुझे रिझाती बन ज्योति तेरे हृदय केसे यूँ समाती !