मजदूर की पीड

इस बढती महंगाई में ,
न ठण्ड की बयार सताती है ,
न जेठ की तीक्ष्ण धूप जलाती है ,
न वसंत का मधुर कलरव बुलाती है ,
न पतझड़ का रेगिस्तान रुलाता है !

संसार के समुन्द्र में ,
चट्टान सा मेरा जीवन ,
वीरान घरोंदों की चौखट पर ,
महंगाई की मार सहता मेरा बचपन ,
रोटी को मोहताज मेरी झोपड़ी ,
सडको पर पलता यौवन !

महलों के सुकुमारों की ख़ुशी ,
झोपड़ी के कुमारों की पीड़ा ,
जिन हथेलियों से जीवन सींचता ,
उन्ही का दामन छिन्न =भिन्न होता ,
तुम्हारे सुख व् हमारे दुःख न बढ़ते ,
बस तुम तो यादो का झरोखा चाहते !

काश ! तुम हमारी बैशाखी बनते ,
हमारे जीवन में भी बहार लाते,
दो घडी हम भी हँस -जी लेते ,
यूँ खून के घूंट पी चुप न रहते ,
अरमानो के कफ़न यूँ ही न दफनाते !!

पूर्व प्रकाशित ,सर्वाधिकार सुरक्षित ,२००४ !
 

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