भोर
सुप्त व्यवस्था  पर जागृत चेतना फिर सुप्त  हो चली है  ,
कुत्सित  आचरण  से  द्रवित पुकार फिर  सुप्त हो  चली  है ,
वक्त  के  नस्तर  बदस्तूर  जारी  रहेंगे जाने  कब  तक ,
झींगुर  की  झी  में  स्याह रात  फिर गुमनाम हो चली हैं !

दुखो का सैलाब है ,निर्ममता का प्रहार है !
मौत  का  मंजर है , इंसानियत  का आया अंत है !

नफरत  के समंदर  में  अन्याय  की  बढ़ोतरी  हो चली  है ,
भोर  मनुजता  की  क्यूँ  अब  दूर हो चली है ?
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