कशमकश 

स्वागत था जिनका रुपहले धूप में ,
उन्हें वक्त के साथ अँगार बनते पाया !

भावों के साथ हुयी नाइंसाफी में ,
जंजीरों में शब्दों को जकड़ा पाया !

जीवन की मखमली घास की बगिया में ,
रिश्तों को कीकड़ सी चुभन  पाया !

सकूं थी जिनकी बातो और वादों में,
रंजिशों के जुल्म का दरख्त  पाया !

भरोशा था हरदम  जिनके अस्तित्व में ,
उनको  शोहरत के बाजार में नीलम होते पाया !

रूहानियत के आंसुओं के सैलाब में ,
नरगिसी सपनों को ही बिखरा पाया !

अजनबी सा इस फूलों के चमन में ,
खुशबुओं  का कुटिल व्यापारी बनता पाया  !

अब रंजो गम  नही उन अहसासों में ,
जिन पर  रूह ने तेरा आशियाना बिखरा पाया !! 

Popular posts from this blog