ख़ामोशी
प्रकृति की देख अजब पहेली ,
जिसकी न संग कोई सहेली ,
धूप छाँव संग नित्य खेली ,
फिर भी जाने क्यूँ है अकेली !
भोर की बेला या दोपहर की चुभन ,
साँझ की लाली या रात काली इस गगन ,
प्रकृति की ख़ामोशी से रुकी धड़कन ,
मायाव्यी लगते अब इसके हर उपवन !
उदासी व् क्रुन्दन का माहोल से होती भोर
बेबसी का आलम छाया हर छोर
मंजिलो की तलाश में भटकता मुसाफिर
शुष्क भावनाओं की बढती भीड़ चारों ओर !
कभी हंसती थी इसकी डाली डाली ,
चारो ओर फैली रहती खुशहाली ,
अब देखो विपदाओं से है बदहाली ,
इंसानियत का कत्ल हो रहा गली गली !
कहीं मजहबी दंगे तो कही रोटी की लूट ,
अमानवीय मूल्यों पर चढ़ रही युवा पीढ़ी की भेंट ,
शिक्षा या रोजगार आरक्षण बनाम अत्याचार का बढ़ रहे रेट,