प्रहरी 

धरती की इस विराट नगरी 
में अडिग खड़ा रहता सदैव प्रहरी 
पहाड़ों व् कन्दराओं में खड़े साये आतंकी 
मौसम की जटिलता को सहर्ष  स्वीकारे प्रहरी
मानवतावाद व् देश प्रेम तो दिखता इसमें हर घड़ी 

आतंकी आक्रमण हो यदि कहीं 
सीने पर हँस कर खाता  वह गोली 
कुदरत  की मार गर पड़े समाज पर कभी 
फिर  करता पहरेदारी बन अडिग प्रहरी 
कर्तव्य पथ पर सदा बढ़ता प्रहरी 

देश सुरक्षा  में समर्पित रहते ये सदा 
समाज की कृपा दृष्टी को तरसते ये प्रहरी 
वीरगति के बाद मिलती इनको ख्याति 
नही पहचान उसकी जब तक नही पहुंचती अर्थी 
इन्हें तो बस चाहत  हमारे प्रेम व् प्रोत्साहन  की 

अपनी माँ का आँचल छोड़कर जाना आसन नहीं 
अपनी  बहिन का स्नेह को ठुकराकर जाना सरल नहीं 
अपनी हमदम  का साथ भुलाकर जाना आसन नही 
अपनी मात्रभूमि पर जान न्योछावर  करना आसन नहीं 
भावनाओं  को कर  ह्रदय में कैद फ़र्ज़ निभाता  प्रहरी 

सेवानिरवृत पर समाज में नहीं होती उसका परिचय 
मात्र फौजी का दमका टाँगे घूमता गली गली 
स्वाभिमान त्याग कर जीता बन मामूली 
युद्ध गाथा गर सुनाये  तो कहलाता ढोंगी 
भावनाओं  के  त्याग  को न समझे कोई 

उसके सम्मान  पर जैसे किसी को अभिमान नही 
हमारे लिए सदैव  गर्व  से खड़ा सीमा पर प्रहरी 
कभी समाज  कभी स्वयं   से हार गया प्रहरी 
प्रकृति  के आगे बहादुर हार जाता अपनों से प्रहरी 
फिर भी देखो हर रोज कितने लाल बन रहे प्रहरी 

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