पश्चाताप 

मन की कुंठाओं  के बढ़ते अवसाद में 
मनुष्य करता नित्य  दिन कुछ गलतियाँ 
अपने उग्र स्वभाव के आगे तुछ  हो जाती मनुजता 
जब असहाय  हो वेदना भेद जाती हृदय को 
तब उन  रिसते नासूरों से उठता है पश्चाताप 
निश्चल  आँसू तब भिगो जाते सारे चितवन को 
पश्चाताप के डोर थामे तब क्षमादान माँगती
आत्म साक्षात्कार  जब हो जाये देवतुल्य 
अमृतधारा बन जाती हैं पश्चाताप के भाव 
विवेक खोती  चिंतनधारा पर वैकुंठधाम  यह पश्चाताप  
हर पल बढ़ते वैर वैमनस्य पर लगाता सदा विराम !

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